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धर्म से आजीविका : इच्छा-परिमाण
भगवान् महावीर ने कहा-'इच्छा आकाश के समान अनन्त है।' यह धार्मिक दृष्टि से जितना सत्य है उतना ही अर्थशास्त्रीय दृष्टि से सत्य है। अर्थशास्त्र के अनुसार मांग से आवश्यकता का क्षेत्र बड़ा होता है। इच्छा का क्षेत्र उससे भी बड़ा होता है। सभी इच्छाएं आवश्यकताएं नहीं हो सकतीं, जब कि सभी आवश्यकताएं इच्छाएं अवश्य होती हैं। इच्छा से आवश्यकता का क्षेत्र संकुचित और मांग का क्षेत्र उससे भी संकुचित होता है।
मांग
आवश्यकताएं
इच्छा
इच्छा नैसर्गिक होती है । आवश्यकताएं भौगोलिक परिस्थिति, सामाजिक रीति-रिवाज, शारीरिक अपेक्षा, आर्थिक परिस्थिति और धार्मिक भावना के द्वारा निर्धारित होती हैं।
__वे एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। भगवान महावीर ने कहाइच्छाओं को संतोष से जीतो।' अग्नि में इंधन डालकर उसे बुझाया नहीं जा सकता, वैसे ही इच्छा की पूर्ति के द्वारा इच्छाओं को संतुष्ट नहीं किया जा सकता । आवश्यकताओं की वृद्धि, वस्तुओं की वृद्धि उत्पादन और श्रम की वृद्धि में योग देती है। किन्तु सुख और शान्ति में योग देती है...यह मान्यता भ्रान्तिपूर्ण है। आवश्यकताओं की वृद्धि से जीवन का स्तर उन्नत होता है, किन्तु सुख और शान्ति का स्तर उन्नत होता है-यह नहीं माना जा सकता।
धार्मिक मनुष्य भी सामाजिक प्राणी होता है। सामाजिक होने के कारण यह अनिवार्यता और सुविधा की कोटि की आवश्यकताओं को नहीं छोड़ पाता । मटावीर ने गटस्थ को उनके त्याग का निर्देश नहीं दिया । विलासिता
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