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धर्म से आजीविका : इच्छा-परिमाण
कोटि की आवश्यकताएं धार्मिक को छोड़नी चाहिए- इस आधार पर 'इच्छापरिमाण' की सीमा-रेखा खींची जा सकती है।
अनिवार्यता और सुविधा कोटि की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए विलासिता कोटि की आवश्यकताओं और इच्छाओं का संयम करना आवश्यक है। इसमें आर्थिक विकास और उन्नत जीवन-स्तर की संभावनाओं का द्वार बन्द भी नहीं है तथा विलासिता के आधार पर होने वाली आर्थिक प्रगति और उन्नत जीवन-स्तर का द्वार खुला भी नहीं है।
अर्थशास्त्र के अनुसार अनिवार्यता, सुविधा और विलासिता की सीमा इस प्रकार है- 'सुख-दुःख के आधार के अनुसार आवश्यकताओं का वर्गीकरण इस बात से निर्धारित होता है कि किसी वस्तु के उपभोग से उपभोक्ता को सुख मिलता है या उपभोग न करने से उसे दुःख होता है। यदि किसी वस्तु के उपभोग से मनुष्य को थोड़ा-सा सुख मिलता है और उपभोग न करने से बहुत दुःख का अनुभव होता है तब ऐसी वस्तु को हम अनिवार्यता कहेंगे। यदि किसी वस्तु के उपभोग से मनुष्य को अनिवार्यता की अपेक्षा अधिक सुख मिलता है, परन्तु उसका उपभोग न करने से थोड़ा-सा दुःख होता है, तब ऐसी वस्तु के उपभोग करने से अत्यन्त सुख का अनुभव होता है तथा उसका उपभोग न करने से दुःख नहीं होता (सिवाय इसके कि जब मनुष्य उस वस्तु के उपभोग का आदि होता है), तब उसको विलासता की वस्तु कहते हैं । यदि किसी वस्तु के उपभोग से अल्पकालिक सुख मिलता है तथा उपभोग न करने से बहुत कष्ट होता है तब उसको धनोत्सर्गिक वस्तु कहते हैं।
सुख-दुःख के आधार पर आवश्यकताओं के इस वर्गीकरण को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है
मनुष्य के सुख-दुःख पर प्रभाव वस्तुएं वस्तु का उपभोग करने पर वस्तु का उपभोग न करने पर अनिवार्यताएं थोड़ा-सा सुख मिलता है। बहुत दु:ख होता है। सुखदायक वस्तुएं कुछ अधिक सुख मिलता है। थोड़ा दुःख होता है। (सुविधाएं) विलासिताएं बहुत सुख मिलता है। दु:ख नहीं होता।
अर्थशास्त्री की दृष्टि में नैतिकता और शान्ति--ये सब गौण होते हैं। उसके सामने मुख्य प्रश्न आर्थिक प्रगति के द्वारा मानवीय कल्याण का होता है । इस आधार पर वह विलासिता का समर्थन करता है और आर्थिक प्रगति के लिए उसे आवश्यक मानता है। धर्म-गुरु की दृष्टि में आर्थिक प्रगति का प्रश्न गौण होता है, नैतिकता और शान्ति का प्रश्न मुख्य होता है। १. एम० एल० सेठ, आधुनिक अर्थशास्त्र, पृ० ६०-६१ ।
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