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समूह-चेतना का विकास
व्यक्ति-चेतना समूह-चेतना से प्रभावित होती है, यह बात सही है । सामूहिक स्तर पर किए जाने वाले कार्यों में सुविधा भी बहुत रहती है। समूह चेतना में जागरण होने के बाद व्यक्ति के लिए प्रयास करने की अपेक्षा भी नहीं है किन्तु इस प्रक्रिया में भी कुछ कठिनाइयां हैं। पहली बात यह है कि सामूहिक परिवर्तन में दण्ड-शक्ति और व्यवस्था का योग आवश्यक है। जिनके हाथ में सत्ता और व्यवस्था नहीं है, वे समूह-चेतना का निर्माण कर सकें, यह बहुत कठिन बात है । अणुव्रत व्यक्ति-चेतना के माध्यम से समूह-चेतना का जागरण करने के लिए प्रयत्नशील है।
दूसरी बात यह है कि दण्ड और व्यवस्था के आधार पर जो काम होता है । उसमें आरोपण हो सकता है, स्वीकार नहीं । स्वीकृति का सम्बन्ध हृदयपरिवर्तन से है । हृदय-परिवर्तन का अर्थ किसी दूसरे हृदय का प्रत्यारोपण नहीं, किन्तु विचार-परिवर्तन है । बाध्यता या आरोपण व्यक्ति को बदल सकते हैं पर उसके विचारों को नहीं बदल सकते । एक लक्ष्य को लेकर चलने वाले सो व्यक्ति भी हर तथ्य पर सहमत नहीं हो पाते, फिर लाखों-करोड़ों के स्तर पर परिवर्तन का जो प्रश्न है, वहां सबकी स्वीकृति सहज कैसे हो सकती है ? एक-रूपता बाध्यता की स्थिति में संभव है। विचार-भिन्नता, इसे निष्पन्न नहीं कर सकती।
यद्यपि हर व्यक्ति नैतिकता को अच्छा मानता है, नैतिक बनने का लक्ष्य लेकर चलता है और यह बात भी उसकी समझ में आती है कि मुझे नैतिक बनना चाहिए; फिर भी सब लोग नैतिक बन जाएं, यह बहुत कठिन बात है । जब तक सब व्यक्ति नैतिक नहीं बनते, तब तक कुछ व्यक्तियों के नैतिक बने रहने में कठिनाई भी है। क्योंकि इससे उनके हित विघटित होते हैं । वैयक्तिक हितों का विघटन होने की स्थिति में भी जो व्यक्ति अध्यात्म और नीति को आधार मानकर चलते हैं, वे समूह-चेतना के विकास का माध्यम बन सकते हैं। अध्यात्म-चेतना और व्यवस्था
__ अध्यात्म-चेतना और व्यवस्था में समझौता कभी नहीं होना चाहिए। जहां समझौते की स्थिति पैदा होती है, वहां अध्यात्म-चेतना लड़खड़ा जाती है । व्यवस्था अनैतिकता को मिटाने में सहयोगी बन सकती है पर अध्यात्म
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