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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
समाज में पैसा कमाने वाले पूंजीपतियों का प्रभाव था, इसलिए उनके मन की बात होने ही वाली थी । सरकारें भी उनका ध्येय कुछ भी हो, केन्द्रित और बड़े पैमाने पर उत्पादन को ही पसन्द करती हैं। क्योंकि युद्ध करने के लिए (आप चाहें तो "संरक्षण के लिए" कह सकते हैं) उसकी आवश्यकता थी। इसलिए भी उसका महत्त्व था कि उसके द्वारा सारी आर्थिक और इसलिए राजनीतिक भी सत्ता उनके हाथों में केन्द्रित होती थी। इस प्रकार सरकारों और मुनाफाखोरों ने मिलकर आधुनिक समाज के भस्मासुर को पैदा किया है। बेचारे विज्ञान का इस मामले में कोई हाथ नहीं था। इतना ही नहीं, वैज्ञानिकों का बस चलता तो वे उत्पादन और विनाश के इन बहुत से साधनों को, जिनके निर्माण में उनके आविष्कारों से सहायता मिली है चकनाचूर करके प्रसन्न होते । समाज ने यदि सत्ता, मुनाफा और युद्ध के लक्ष्यों को न अपनाकर शान्ति, सद्भावना, सहकार, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व के लक्ष्यों को अपनाया होता, तो निश्चित ही यंत्र-कला का तदनुरूप विकास करने में विज्ञान का उतना ही सहयोग हुआ होता । वह विज्ञान की अवनति नहीं कही जाती बल्कि विनाश के बदले निर्माण की दिशा में उसकी प्रगति ही कही जाती। इस प्रसंग में मैं फिर "हक्सले" के विचार पेश करता हूं :
__ "मेरा व्यक्तिगत विचार है, जो दरअसल विकेन्द्रीकरण के समस्त समर्थकों का विचार है कि जब तक शुद्ध विज्ञान के निष्कर्षों का उपयोग बड़े पैमाने पर उत्पादन और वितरण करनेवाली उद्योग-व्यवस्था को महंगी, अधिक विस्तृत और अधिकाधिक विशिष्ट बनाने में होता रहेगा, सत्ता का निरन्तर थोड़े-से-थोड़े हाथों में अधिकाधिक केन्द्रीकरण होने के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता। आर्थिक तथा राजनीतिक सत्ता के इस केन्द्रीकरण के परिणाम स्वरूप जनता निरन्तर अपनी नागरिक स्वतन्त्रता, अपनी व्यक्तिगत स्वाश्रयता और स्वशासन के अपने अवसर खोती रहेगी। किन्तु हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि निलिप्त वैज्ञानिक अनुसंधानों की उपलब्धियां अपने आप में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो केन्द्रित आर्थिक व्यवस्था, उद्योग और सत्ता के लाभ के लिए अपने उपयोग को अनिवार्य बनाती हो। यदि आविष्कारक और यंत्रज्ञ लोग चाहें तो शुद्ध विज्ञान के निष्कर्षों को स्वतन्त्र रूप से या सहकारी मंडलों के काम करने वाले छोटे-छोटे कारोबार के मालिकों के आर्थिक स्वावलम्बन में और इसलिये राजनीतिक स्वातंत्र्य को बढ़ाने के कामों में, उतनी ही उपयोगिता के साथ इस्तेमाल कर सकते हैं।"
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सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी द्वारा प्रकाशित-'समाजवाद से सर्वोदय को ओर' से।
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