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आवश्यकताओं पर नियंत्रण ही समाजवाद की नींव है
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नहीं ले सकता। यदि मनुष्य छोटे-छोटे समुदायों में रहे तो स्व-शासन स्वव्यवस्था, पारस्परिक सहकार और समानता, स्वतन्त्रता, बन्धुत्व, इन सबका प्रयोग और विकास बेहतरी के लिए हो सकता है। पश्चिम में भी दूर-दृष्टि वाले विचारकों को अब ऐसा लगने लगा है।
इसके अतिरिक्त मनुष्य प्रकृति और संस्कृति दोनों की उपज है। इसलिए उसके सन्तुलित विकास के लिए यह आवश्यक है कि दोनों के बीच मधुर समरसता पैदा की जाय । लेकिन पार्कों और हरे-भरे मार्गों के होते हुए भी लन्दन, पेरिस, न्यूयार्क, मास्को जैसे आधुनिक सभ्यता के केन्द्रों में इस प्रकार की समरसता कायम करना संभव नहीं है। इसी का परिणाम है कि आधुनिक मनुष्य का विकास विकृत और एकांगी हो गया है। प्रकृति और संस्कृति का सरस सम्मिश्रण अपेक्षाकृत छोटे-छोटे समुदायों में ही संभव हो सकता है। आल्डस हक्सले की 'साइंस-लिबर्टी एण्ड पीस" में आता है : "अब यह काफी स्पष्ट हो गया है कि मनुष्य की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएं, उसकी आध्यात्मिक आवश्यकताओं की कौन कहे, तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक (१) उसको काफी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और एक स्वशासित दल के रूप में एकदूसरे के प्रति और पूरे दल के प्रति, व्यक्तिगत उत्तरदायित्व न हो; (२) उसके कार्य में एक खास सौन्दर्य की भावना और मानवीय गौरव न हो और जब तक (३) अपने प्राकृतिक वातावरण के साथ उसका सजीव और गहरा अन्योन्याश्रय संबंध न हो।"
___ इन्हीं कारणों से गांधीजी इतना जोर देकर कहते थे कि भारतीय ग्राम और ग्राम-स्वराज्य (नामराज) ही उनके भावी समाज की बुनियाद हैं। गांधीजी का अभिप्राय भाई-भाई की तरह शान्तिपूर्वक रहने वाले स्वतन्त्र और समान व्यक्तियों के समाज से था । विज्ञान और लघु-उत्पादन
छोटी छोटी बस्तियो में रहने और अधिकांश अपने लिए या स्थानिक उपयोग के लिए छोटे-छोटे यंत्रों पर उत्पादन करने को लोग विज्ञान की सुई को पीछे घसीटना कह सकते हैं। लोग समझते हैं कि विज्ञान बड़े पैमाने पर केन्द्रित उत्पादन और मनुष्यों की घनी-घनी बस्तियां अनिवार्य रूप से सहचारी है। इससे अधिक बेमानी बात और क्या हो सकती है ? विज्ञान दो तरह का है । शुद्ध विज्ञान और व्यवहार्य विज्ञान । मैं केवल शुद्ध विज्ञान को ही विज्ञान कहूंगा, दूसरा तो यंत्र-कला है । विज्ञान का उपयोग स्वत: विज्ञान पर निर्भर नहीं करता बल्कि समाज के चरित्र पर निर्भर करता है। बड़ी मशीनों के द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन करना रुपया कमाने वालों के लिए लाभदायक था, इसलिए यंत्र-कला ने उस विशिष्ट प्रकार के उत्पादन का मार्ग अपनाया ।
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