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समाजवादी व्यवस्था और परिग्रह का अल्पीकरण
समाज-संरचना का मुख्य आधार है-अर्थ-व्यवस्था। जिस समाज की अर्थ-व्यवस्था जितनी समुन्नत और संतुलित होती है, वह समाज उतनी ही प्रगति करता है। अर्थशास्त्रियों के इस सिद्धांत में सचाई नहीं है, ऐसा मैं नहीं मानता। दरिद्रता समाज के लिए अभिशाप है। इस अभिशाप से मुक्त हुए बिना कोई भी समाज आगे नहीं बढ़ सकता । इस तथ्य को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। फिर भी अपरिग्रह का अपना मूल्य है और वह स्वस्थ समाज-निर्माण का प्रमुख अंग है।
___ अपरिग्रह का मूल्य न तो गरीबी की स्थिति में है और न लड़खड़ाती अर्थ-व्यवस्था पर आधारित है। वस्तु-उत्पादन और भौतिक संपदा के साथ उसका कोई विरोधी भी नहीं है। पदार्थ और पदार्थ-प्रयोग। इन दोनों के होते हुए भी मन में लगाव या आसक्ति न हो, यह अपरिग्रह की आधार-भित्ति है। इसका निर्माण करने के लिए अंतर्जगत् में बहुत लम्बी यात्रा करनी होती है । वह यात्रा अध्यात्म का अनुसंधान है और विवेक का संधान है । सामाजिक व्यक्ति के लिए अपरिग्रह के चरम शिखर तक पहुंचना कठिन है, इस दृष्टि से भगवान् महावीर ने समाज के लिए परिग्रह के अल्पीकरण का सिद्धान्त दिया।
संपदा मूलतः अस्वामिक होती है। उस पर सत्ता, शक्ति और व्यावसायिक बुद्धि के द्वारा स्वामित्व स्थापित किया जाता है। जिस व्यक्ति के हाथ में सत्ता है, वह अपनी अभीप्सा के अनुरूप संपत्ति का स्वामी बन जाता है। शक्ति-प्रयोग भी स्वामित्व-स्थापना की श्रृंखला में एक कड़ी है। तीसरा तत्त्व है व्यावसायिक बुद्धि । इसके द्वारा व्यक्ति अपने स्वामित्व का विस्तार करके संपदा पर एकाधिपत्य स्थापित कर लेता है । व्यवसाय ऐसी कला है, जो बिना लड़ाई-झगड़े दूसरे की जेब से पैसा निकलवा लेती है।
स्वामित्व की सीमा का निर्धारण न होने के कारण व्यक्ति की आकांक्षा बढ़ती जाती है। अधिक आकांक्षाएं तीव्र आसक्ति को जन्म देती हैं और आसक्ति परिग्रह को केन्द्रित बना देती है, जो महापरिग्रह के रूप में परिणत हो जाता है।
___महापरिग्रह का अर्थ ही है केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था। यह न तो सामाजिक हित में है और न धार्मिक दृष्टि से भी हितावह है। केन्द्रित अर्थ-व्यवस्था संघर्ष, उपद्रव और हिंसा का कारण है। हर युग का इतिहास इस तथ्य का
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