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________________ समाजवादी व्यवस्था और हिंसा का अल्पीकरण १८१ जो हिंसा की परम्परा चलती है, वह टूटती नहीं, अधिक गहरी हो जाती है। यह हिंसा जीवन के उपकरण कृषि आदि की भांति अनिवार्य भी नहीं है। एक दृष्टि से यह महा-हिंसा की ओर प्रस्थान है । भगवान् महावीर ने कहा-महाहिंसा नरक का हेतु है । नरक और स्वर्ग की पारलौकिक परिभाषा से हटकर भी सोचें तो यह कहने में कोई कठिनाई नहीं है कि हिंसा की वृद्धि जीवन को नारकीय बना देती है । नारकीय यंत्रणाओं और संत्रास से बोझिल जीवन व्यक्ति को अधिक असंतुलित बना देता है। असंतुलन के परिणामस्वरूप सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्य विघटित हो जाते हैं और मानवीय चेतना पतन के गर्त में गिरकर दब जाती है। हिंसा के अल्पीकरण का सिद्धान्त साधन-शुद्धि के सिद्धांत का विकास है। साध्य चाहे कितना ही प्रशस्त हो, पर साधन शुद्ध नहीं है तो वह प्रयल वांछनीय नहीं हो सकता। समाजवादी व्यवस्था का उद्देश्य है समाज के बहुसंख्यक लोगों को यथेष्ट सुख-सुविधा उपलब्ध कराना । कुछ धर्मों का उद्देश्य है-जैसे-तैसे अधिकांश व्यक्तियों को धर्म के मार्ग पर लाना । इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समाज के कुछ व्यक्तियों को मिटा देने का सिद्धान्त प्रशस्य नहीं है। एक-दूसरे की सत्ता या प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए निरन्तर हत्याओं का जो सिलसिला चलता है, वह मानवीय चेतना में हिंसा के संस्कारों का निर्माण कर देता है। हिंसा के संस्कारों की निमिति और उसका शृंखलाबद्ध प्रवाह महाहिंसा को प्रत्यक्ष निमंत्रण है। (महाहिंसा की आग में झुलसी हुई चेतना किसी भी समाज के हित में हो, यह कभी संभव नहीं है।) जो धार्मिक मंच बलात् धर्म-परिवर्तन के सिद्धांत में विश्वास करते हैं, धर्म की आत्मा को उपलब्ध नहीं कर सकते। उनमें धर्म की अपेक्षा संगठन या सम्प्रदाय मुख्य रहता है । साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से हिंसा को जो खुला प्रोत्साहन मिलता है, वह और अधिक घातक है। __ इस स्थिति में निरपवाद मार्ग है साध्य और साधन, दोनों की शुद्धि का, अर्थात् हिंसा के अल्पीकरण का। जिस समाज में हिंसा की अल्पता की ओर गति होती रहेगी, उस समाज में दुर्भावना और दुश्चिताएं स्वयं क्षीण होती जाएंगी, क्रूर व्यवहार और प्राणवध जैसी घटनाओं को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। अपने अहं-पोषण के लिए दूसरे के अस्तित्व को खतरा उपस्थित करने का मनोभाव नहीं रहेगा, तथा नहीं रहेगा सहानवस्थान जैसा अस्पृहणीय विचार । अणुव्रत हिंसा को जीवन का आधार कभी नहीं मान सकता और न ऐसा मानने से सामाजिक जीवन को आलम्बन मिल सकता है। समता, मैत्री, प्रेम, सौहार्द एवं सामंजस्य-ये सब हिंसा के अल्पतम और अल्पतर होने से ही घटित हो सकते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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