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समाजवादी व्यवस्था और परिग्रह का अल्पीकरण
१८३ साक्षी है। अर्थ के केन्द्रीकरण से संभावित दुष्परिणामों को ध्यान में रखकर सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर संग्रह के समीकरण का प्रयत्न होता रहा
धार्मिक स्तर पर भगवान महावीर ने इस संदर्भ में विशद चिंतन दिया। भगवान् महावीर ने महापरिग्रह की व्याख्या दो प्रकार से दी-महान् आसक्ति और महान् संग्रह । केवल आसक्ति ही परिग्रह के रूप में परिभाषित हो तो पदार्थों का प्रचुर संग्रह क्यों होगा; अनासक्त व्यक्ति अनावश्यक संग्रह करेगा ही क्यों ? केवल पदार्थ-संग्रह ही महापरिग्रह हो तो मानसिक स्तर पर घटने वाली घटना को अस्वीकृति मिल जाएगी। इसलिए महान् आसक्ति और महान् संग्रह दोनों ही वांछनीय नहीं हैं। ये दोनों मिलकर महापरिग्रह की श्रेणी में आते हैं।
संग्रह और आसक्ति न आत्म-हित की दृष्टि से वांछनीय हैं और न समाज-व्यवस्था की दृष्टि से । इस स्थिति में अपरिग्रह का सिद्धान्त सामने आता है। पर इस सचाई को भी नकारा नहीं जा सकता कि व्यक्ति गरीब होकर अच्छा सामाजिक जीवन नहीं जी नहीं सकता। इसलिए भगवान् महावीर द्वारा निर्देशित परिग्रह के अल्पीकरण का सिद्धन्त कार्यकर हो सकता है । अल्पपरिग्रह का अर्थ है-इच्छा-अल्प और संग्रह-अल्प । अल्पता के इस सूत्र को आगे रखकर ही अणुव्रत अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करता है।
अणुव्रत सबसे पहले दृष्टिकोण-निर्माण की दिशा देता है। अर्थ आवश्यकता-पूर्ति का साधन है, साध्य नहीं। यह सिद्धान्त देश और काल से अबाधित है। इस दृष्टिकोण के स्थिर होने के बाद परिग्रह की सीमा और विसर्जन-ये दो माध्यम ऐसे हैं, जो अर्थ को विकेन्द्रित रख सकते हैं। अणुव्रत ने परिग्रह के एक निश्चित सीमाकरण की अपेक्षा अर्जन के स्रोतों की शुद्धि पर अधिक बल दिया है। अर्जन के सारे स्रोत शुद्ध रहे और व्यक्तिगत स्तर पर पदार्थ-उपभोग के संयम का लक्ष्य रहे तो अतिरिक्त संग्रह की स्थिति स्वयं मोड़ ले सकती है । वास्तव में महापरिग्रह के मुख्य स्रोत दो हैं-अर्जन के साधनों की अशुद्धि और व्यक्तिगत असंयम । यदि ये दोनों स्रोत बन्द हो जाएं तो सहज ही अल्पपरिग्रह फलित हो जाता है। अणुव्रत इसी भूमिका पर जनता का मार्गदर्शन करता है।
परिग्रह के अल्पीकरण की बात शाश्वत सत्य के रूप में मान्य है। यह आत्महित के लिए जितनी अनुकूल है, समाज-व्यवस्था के लिए भी उतनी ही अनुकूल है। एक सिद्धान्त स्थापित किया जा सकता है कि जो समाज-व्यवस्था आत्महित से प्रतिकूल जाती है, वह सामाजिक हितों की दृष्टि से भी कम अनुकूल होगी।
यह सत्य प्रमाणित हो चुका है कि जिस प्रवृत्ति में चैतन्य का स्पर्श नहीं
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