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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
हो सकती है । व्यवस्था यह दृष्टिकोण नहीं दे सकती । साम्यवादी व्यवस्था भी यह दृष्टिकोण नहीं दे सकती । साम्यवादी व्यवस्था ने सबके हितों को महत्त्व दिया पर उनमें सामंजस्य स्थापित करने की दृष्टि नहीं दी । यही कारण है कि वह व्यवस्था सफल नहीं हो सकी । साम्यवादी व्यवस्था के साथ अनासक्त चेतना का विकास होने से ही शोषणविहीन और स्वतन्त्र समाज का निर्माण हो सकता है ।
शोषण विहीन और स्वतन्त्र समाज का रूप
उस समाज में वैयक्तिक हितों और स्वार्थों को ही प्रश्रय नहीं मिलेगा । एक-दूसरे के हितों में परस्पर संघर्ष नहीं होगा । समुचित व्यवस्था होगी । शक्ति का सम्यक् नियोजन होगा। अपने हित के लिए दूसरे के हितों को कुचलने की मनोवृत्ति नहीं होगी। उद्योग सार्वजनिक हो या व्यक्तिगत, उनसे वैयक्तिक स्वार्थी को पोषण नहीं मिलेगा। किसी भी व्यक्ति की शक्ति, बुद्धि, श्रम और अर्थ का शोषण नहीं होगा । कोई व्यक्ति किसी दूसरे का दास बनकर नहीं रहेगा । आत्मानुशासन के भाव विकसित होंगे । सहयोग और सहानुभूति की भावना प्रबल होगी । संग्रह के मनोभाव समाप्त हो जाएंगे । श्रम और अर्थ का विसर्जन महत्त्वपूर्ण माना जाएगा तथा मानवीय चेतना को स्वतन्त्र और अनासक्त होने का वातावरण मिलेगा ।
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