SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शोषण-मुक्त समूह-चेतना १७७ बाद भी उसे एक बलवान् प्रेरणा मिलती है, जिससे वह संग्रह करता है। प्रकट रूप से संग्रह करने की स्थिति न हो तो छिपकर करता है । साम्यवादी देशों में भी संग्रह और भ्रष्टाचार का क्रम चलता है। इस क्रम को तोड़ने के लिए वहां कड़े नियंत्रण की व्यवस्था होती है । इसका परिणाम यह हुआ कि साम्यवादी देशों में जहां समाज शासन-मुक्त होना चाहिए था, अधिक नियंत्रित हो गया। इस अतिनियंत्रण का एकमात्र कारण यही है कि जब तक वृत्तियों का शोधन नहीं होता, जब तक संग्रह के संस्कार नहीं मिटते, तब तक केवल व्यवस्था से इतना बड़ा परिवर्तन असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। ___ अणुव्रत मानवीय स्वभाव को बदलने के लिए प्रयत्नशील है। वह व्यक्ति की स्वतन्त्र-चेतना और संग्रह-मुक्त चेतना का निर्माण करना चाहता है। संग्रह-मुक्त चेतना ही स्वार्थ-मुक्त चेतना हो सकती है । अध्यात्म चेतना में पदार्थ के प्रति अनासक्ति के भाव उत्पन्न हो जाते हैं । अनासक्त-चेतना में आवश्यकता मात्र बचती है, इसलिए संग्रह की मनोवृत्ति स्वयं समाप्त हो जाती है। शोषण-विहीन और स्वतन्त्र समाज की रचना साम्यवाद और अणुव्रत दोनों का उद्देश्य है पर दोनों की प्रक्रिया भिन्न है। साम्यवाद व्यवस्था देता है और अणुव्रत वृत्तियों को परिमाजित करता है । व्यवस्था की गति तीव्र हो सकती है किन्तु वह उत्तरोत्तर लक्ष्य से प्रतिकूल होती जाती है। अणुव्रत की गति मंद है पर वह उत्तरोत्तर लक्ष्य के अनुकूल है। त्वरित गति का उतना महत्त्व नहीं है, जितना लक्ष्य-प्रतिबद्ध गति का है । साम्यवादी देशों का व्यक्तिवाद की ओर बढ़ता हुआ झुकाव देखकर यह सहज ही जाना जा सकता है कि व्यवस्था-परिवर्तन की अपेक्षा वृत्ति-परिवर्तन का क्रम प्रशस्य है । स्वतन्त्र समाज की रचना जिस समाज के हित दूसरे समाज के हितों द्वारा बाधित न हों, वह समाज स्वतन्त्र समाज है । व्यवसायी लोगों का एक समाज है । एक समाज राज्य-कर्मचारियों का है और एक समाज राजनेताओं का है। व्यवसायियों के हित कर्मचारियों द्वारा बाधित न हों और कर्मचारियों के हितों में राजनेताओं की ओर से काई बाधा न हो। इस प्रकार जितने वर्ग या समाज हैं, उनके हितों में परस्पर संघर्ष न हो। जिस समाज में दूसरे के हितों को कुचलने की स्वतन्त्रता नहीं है, वह समाज स्वतन्त्र समाज है। अणुव्रत मनुष्य को यही दृष्टिकोण देता है कि शक्ति का नियोजन किसी एक के हित में न हो। इसी दृष्टिकोण को व्यावहारिक रूप देते हुए किसी व्यक्ति ने आत्म-निवेदन किया है---'इससे बढ़कर भगवान् की मुझ पर क्या कृपा होगी कि दूसरों को सताने के लिए मेरे पास शक्ति नहीं है।' शक्ति प्राप्त होने पर भी उसका दुरुपयोग न करने की वृत्ति धार्मिक चेतना में ही विकसित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy