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________________ १७६ अहिंसा : व्यक्ति और समाज थे । वह शोषण का एक रूप था। उद्योग-धंधों का प्रचलन लगभग चार सौ वर्ष से है । इस दृष्टि से शोषण का इतिहास चार सौ वर्ष पुराना है । शोषण विहीन समाज-रचना में उद्योग-धन्धे वर्तमान समाज व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था के अनुसार यह कहना उचित नहीं होगा कि उद्योगों को मिटा दिया जाए । उद्योग देश के लिए आवश्यक हैं पर उनके साथ शोषण का अनुबन्ध नहीं होना चाहिए । शोषण होगा तो शोषित वर्ग में उसकी प्रतिक्रिया भी होगी । क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्यं - भावी है । प्राचीन समय में संगठित प्रतिक्रिया के साधन नहीं थे; क्योंकि श्रमिकों के संगठन नहीं थे । जब एक मिल में हजारों श्रमिक काम करने लगे, तब से श्रमिकों के संगठन (यूनियन) बन गये । श्रमिक संगठन अपने प्रति होने वाले अन्याय के प्रतिरोधक बने । यदि श्रमिकों के संघ नहीं होते तो सम्भव है उनके प्रति अधिक अन्याय होता । क्योंकि जिस स्थिति का प्रतिरोध नहीं होता है, वह हावी हो जाती है। मजदूरों के हितों को संरक्षण देने के लिए मजदूर नेताओं ने क्रांति की । शोषण के विरोध में आवाज उठी, किन्तु इस आवाज का अर्थ यह नहीं कि उद्योग-धन्धों को समाप्त कर देना चाहिए । शोषण के विरुद्ध आवाज धार्मिक क्षेत्र में महावीर और बुद्ध ने शोषण के विरोध में आवाज उठायी। नैतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में आजीविका - विच्छेद को बहुत बड़ा अपराध माना गया। किसी के अधिकार का हनन औचित्य का अतिक्रमण है । जीविका के लिए प्राप्तव्य साधनों में कटौती करना व्यक्ति के श्रम का अवमूल्यन है । श्रम का अवमूल्यन होने से ही शोषण-मूलक मनोवृत्ति का विकास हुआ है । इस वृत्ति पर बार-बार प्रहार हुआ, फिर भी इसकी जड़ें नहीं उखड़ सकीं । इन शताब्दियों में मजदूरों को भान हुआ वे जागृत हुए । कुछ व्यक्तियों ने उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की। मजदूरों ने उनको अपना नेता बना लिया। मजदूर नेताओं ने सामूहिक आवाज उठाकर शोषण से मुक्ति पाने का प्रयत्न किया। मजदूरों की क्रांति का विकसित रूप ही साम्यवाद है । साम्यवाद का उद्घोष है—श्रम का मूल्य मजदूरों को मिले । स्वामित्व का दायित्व वहन करने के लिए सरकार भी मजदूरों की बने । निष्कर्ष की भाषा कहा जा सकता है कि जो विचारधारा शासन और पूंजी का अधिकार सर्वहारा वर्ग को देती है, वही साम्यवाद है । साम्यवादी लोगों का प्रमुख उद्देश्य है शोषित - श्रमिक वर्ग को त्राण देना । में शोषण विहीन समाज का निर्माण मनुष्य की प्रकृति यह है कि वह संग्रह से विमुख नहीं हो पाता । पूंजी से अलग होकर अथवा व्यक्तिगत पूंजी न रखने की व्यवस्था स्वीकार करने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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