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शोषण मुक्त समूह - चेतना
मनुष्य साधन-निर्भर प्राणी है । उसके जीवन का निर्वाह साधन - सापेक्ष है और उसकी समृद्धि का विकास भी साधनों पर ही निर्भर है । साधन दो प्रकार के होते हैं- प्राकृतिक और श्रम निष्पन्न । प्राकृतिक साधन सबके लिए समान रूप से प्राप्त हो सकते हैं, इसलिए वहां कोई विवाद खड़ा नहीं होता । विवादास्पद हैं श्रम निष्पन्न साधन । श्रम का नियोजन बुद्धि से होता | अतः साधनों के विकास में श्रम और बुद्धि दोनों मूल्याई हैं ।
विश्व का इतिहास यह है कि श्रम और बुद्धि का योग बहुत कम रहा है । साधनों का संचालन और नियोजन बुद्धि के हाथ में रहा है और उनका उत्पादन श्रम के हाथ में है। श्रम और बुद्धि दोनों में एकरसता नहीं रही है । एकरसता न होने का भी कारण है । दोनों के स्वार्थ भिन्न-भिन्न हैं । जहां स्वार्थ भिन्न होते हैं, वहां सशक्त व्यक्ति अपने हित के लिए दूसरों के हित को कुचलने के लिए उद्यत हो जाता है। श्रम और बुद्धि के संघर्ष में श्रम बुद्धि की जकड़ में आ गया और वह बुद्धि द्वारा शोषित होने लगा । इस प्रकार एक शोषण मुक्त समाज की नींव पड़ गयी ।
साधनों का उत्पादन करने के लिए श्रम की आवश्यकता है पर श्रम अभाव में शक्ति भी काम
प्रति पूर्ण आश्वस्त था । कहा- 'जब तक मैं हूं,
का संचालन बौद्धिक आधार पर होता है । बुद्धि के नहीं कर सकती । महामात्य चाणक्य अपनी बुद्धि के उसने अपने राजा और जनता को आश्वासन देते हुए अपने देश को कोई खतरा नहीं है।' बुद्धिमान् व्यक्ति अपने हित के लिए श्रमिकों का शोषण करता है । उसका अपनत्व जिस सीमा तक विस्तृत होता है, शोषण की पद्धतियां भी उतना ही विस्तार पा लेती हैं । वैयक्तिक स्वार्थ को गौण कर दिया जाए तो शोषण की वृत्ति को पनपने का अवकाश ही नहीं मिल सकता ।
व्यापार के क्षेत्र में जब तक वैयक्तिकता थी, शोषण का क्रम नहीं था । व्यक्तिगत व्यवहार में कुछेक व्यक्ति काम करते और श्रम के अनुपात से अर्थ का वितरण हो जाता । शोषण की बात उद्योग के साथ आयी । उद्योगों में हजारों मजदूर काम करते हैं। श्रम हजारों का होता है पर उसका लाभ एक व्यक्ति को मिलता है । इस अर्थ में कहा जा सकता है कि बड़े उद्योग शोषण के मुख्य केन्द्र हैं । प्राचीन समय में सामंत, जमींदार आदि जनता से बेगार लेते
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