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सामाजिक क्रान्ति और उसका स्वरूप
१७१ धर्म-गुरु का नेतृत्व बड़े समाज पर होता है । उनके क्रांतिकारी दृष्टिकोण का आधार समाज की स्वस्थता है ।
क्रांति करने से पहले क्रांति के मानदण्डों की स्थापना होना आवश्यक है । भगवान महावीर के सामने समता का मानदण्ड था। उसके आधार पर उन्होंने समाज की विषमता-मूलक हर प्रवृत्ति पर प्रहार किया। उस समय दास-प्रथा, जातिवाद और अर्थ-संग्रह-ये विषमता के उत्स थे। आज स्थितियां बदल गयी हैं, फिर भी इस क्षेत्र में बहुत कुछ करणीय है। समता का मानदण्ड हमें परम्परा से प्राप्त है, और वह आज भी सम्मत है । आर्थिक विषमता और जातिगत विषमता के विरुद्ध आवाज उठाने के साथ-साथ मानवीय समता का पूर्ण विकास होना जरूरी है।
दहेज-प्रथा, ठहराव, शादी के प्रसंग में अतिव्यय, संग्रह की मनोवृत्ति आदि सामाजिक अभिशापों का अन्त करने के साथ मूल्य-परिवर्तन की दिशा में भी काम करना है । वर्ग-भेद की कल्पना और धार्मिक प्रतिबद्धता भी समाज के हित में नहीं है । पर्दा-प्रथा और पहनावे के संबंध में दृष्टिकोण स्पष्ट होना जरूरी है। कुल मिलाकर सादा और सात्त्विक जीवन जीने के प्रति आकर्षण पैदा कर समाज के मिथ्या मानदण्डों को बदलना है। मूल्यपरिवर्तन और विचार-परिवर्तन के परिवेश ही क्रांति की सफलता है।
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