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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
जीते हैं। समाज से प्रभावित हर व्यक्ति सामाजिक क्रांति में योग देता है । धर्म जब समाजगत होता है, तब धर्माचार्य अपने सामाजिक दायित्व से मुक्त कैसे रह सकेंगे ? धर्म, धर्माचार्यों और धर्म के प्रतिनिधियों की यह विशेष जिम्मेदारी है कि वे समाज को रूढ़ियों की पकड़ से मुक्त करें। समाज धर्म और अध्यात्म की पात्रता प्राप्त करे, इसलिए समाज का परिष्कार आवश्यक है।
सामाजिक क्रान्ति के दो आधार हैं-सैनिक शासन और हृदय-परिवर्तन । राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र इन दोनों आधारों को मानकर चलते हैं। एक समय तुर्की में बुर्का ओढ़ने की प्रथा थी। तुर्की के तत्कालीन राष्ट्रपति कमालपाशा ने विशेष आदेश द्वारा रात-रात में ही बुर्का उठा दिया । इसी प्रकार अनेक देशों में सामाजिक क्षेत्र में समय-समय पर क्रांतियां होती रही हैं। एक समय था जब बड़ा आदमी वह माना जाता था जो अधिक-सेअधिक अलंकरणों से सुसज्जित होता था। नगर के कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को पांवों में सोने के कड़े पहनने की मुक्तता प्राप्त होती थी। वे सोना-निवेश कहलाते थे और पांवों में सोना पहनना उनके राजकीय सम्मान का प्रतीक था। आज यह मूल्य समाप्त हो गया है। अब अलंकरणों के आधार पर व्यक्ति के बड़प्पन का अंकन नहीं होता है। पांवों में सोना पहने या न पहने, आज उसका कोई मूल्य नहीं है ।
एक युग था जब धन को जमीन में गाड़कर रखना, सोने का संचय करना अच्छा माना जाता था किन्तु आज अर्थशास्त्रीय नीति बदल गयी है और उस युग के मूल्य परिवर्तित हो गए हैं । अर्थ का संग्रह करना, उसके प्रवाह को रोककर रखना अब अनुचित माना जाने लगा है। अर्थशास्त्र के अनुसार अर्थ की उपयोगिता यह है कि व्यक्ति स्वयं उससे लाभान्वित हो और दूसरों की आजीविका के साधन सुलभ हो । व्यावसायिक क्षेत्र में उद्योग-धंधे ही देश की प्रगति में साधक हैं, अतः अर्थ को जमीन में गाड़कर रखने का मूल्य समाप्त हो गया है।
समाज में कुछ ऐसी प्रथाएं भी चलती हैं, जो धर्म को प्रभावित करती हैं । मृत्यु पर प्रथा रूप से रोना, पति के मरने पर स्त्री के लिए वर्षों तक कोने में बैठे रहना, विधवा स्त्री को कलंक रूप मानना, उसका मुंह देखने को अपशकुन कहना आदि ऐसी रूढ़ियां हैं, जिनके सम्बन्ध में दृष्टिकोण देना धर्मगुरुओं के लिए आवश्यक हो जाता है; क्योंकि परिवर्तनीय के प्रति अपरिवर्तनीय का आग्रह गलत दृष्टिकोण है। मिथ्या अभिनिवेश मिटाकर सत्य को निखार देना क्रांति का उद्देश्य है । जिस धर्म के अनुयायी मिथ्या आग्रह और अंध-विश्वासों को नहीं छोड़ सकते, वह धर्म ही क्या ? अनुयायी समाज की अर्थहीन रूढ़ परम्पराओं के परिवर्तन का दृष्टिकोण देना धर्माचार्टी के करणीय कामों में से एक है। इसके लिए उन्हें अपना वर्चस्व काम में लेना चाहिए।
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