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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
का विस्तार संग्रह या परिग्रह का कारण बनता है और संग्रह शोषण का कारण बनता है, इसलिए अणुव्रत इच्छा-संयम पर बल देता है । इच्छा के साथ संग्रहसंयम स्वयं हो जाएगा।
२. अणुव्रत अर्थ और सत्ता के केन्द्रीकरण को, फिर चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या राष्ट्रीय पर, प्रश्रय नहीं देगा। अर्थ और सत्ता का यह केन्द्रीकरण ही शोषण और संग्रह की समस्याओं को जन्म देता है।
३. उस समाज में श्रम और स्वावलम्बन की प्रतिष्ठा होगी। व्यक्ति आत्म-निर्भर बने और श्रम का मूल्यांकन सामाजिक स्तर पर हो; यह प्रयत्न किया जाएगा।
४. संग्रह करने वालों को उसमें सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी। मनुष्य बहुधा अधिक संग्रह प्रतिष्ठा पाने के लिए ही करता है । आवश्यकता पूर्ति के लिए मनुष्य को अधिक धन अपेक्षित नहीं होता। फिर भी धन के प्रति उसकी जो लालसा देखी जाती है, उसका एकमात्र कारण प्रतिष्ठा ही है। एक बार मैंने एक बड़े उद्योगपति से जालसाजी करने का कारण पूछा। उन्होने कहा कि मैं हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा उद्योगपति बनना चाहता हूं। आज भी लोगों के मन में संग्रह के प्रति जो आकर्षण है, उसके पीछे सामाजिक प्रतिष्ठा की भावना ही काम कर रही है। यही कारण है कि वे सब प्रकार के छल, प्रपंच, फरेब और षड्यंत्र रचकर भी पैसा कमाना चाहते हैं । आज यदि अर्थ की भूमिका में से सामाजिक प्रतिष्ठा को निकाल लिया जाए, तो दूसरे ही क्षण संग्रह का महल ढह जाने वाला है।
५. उस समाज के आधार में अहिंसा होगी। उसका यह विश्वास होगा कि समस्या का सही समाधान अहिंसा में ही है। अपनी हर समस्या को वह अहिंसा के माध्यम से ही सुलझाने का प्रयत्न करेगा।
इस प्रकार वह एक संयम-प्रधान समाज होगा । निरंकुश मनोवृत्ति, संग्रह और परिग्रह के प्रति आकर्षण, अर्थ और सत्ता का केंद्रीकरण, अर्थ की प्रतिष्ठा, हिंसा और शक्ति-बल का उसमें कोई स्थान नहीं होगा।
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