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अहिंसा : व्यक्ति और समाज
प्रतीक्षा करते-करते थक गये । उनके धैर्य ने सीमा को तोड़ दिया। हाथों में बड़ी-बड़ी लाठियां लेकर बाजार में पहुंचे और मकानों के घास-फूस के छप्परों को जोर-जोर से पीटने लगे। लोगों ने पूछा-'महात्मन् ! यह आक्रोश कैसा ?' साधुओं ने कहा- 'अभी तक भोजन का प्रबन्ध कहां हो पाया है ? ग्रामवासियों ने विनम्र निवेदन किया--'भगवन्, यह तोड़-फोड़ कृपा कर बन्द कीजिए। हम अविलम्ब भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं।' साधुओं ने कहा'जब तक भोजन सामने नहीं आ जाता, तोड़-फोड़ बन्द नहीं होगी।'
यही स्थिति आज सारे राष्ट्र की हो रही है । हर वर्ग का यह आग्रह है, हमारी मांग यदि पूरी नहीं होती है तो हम तोड़-फोड़ करेंगे, लोगों को लूटेंगे; मकानों, रेलगाड़ियों, बसों और कारों को आग लगाएंगे और राष्ट्र की सम्पत्ति को तबाह करेंगे। गैर-कम्युनिस्ट लोग कम्युनिस्ट दल की विजय से एक प्रकार का आतंक अनुभव कर रहे हैं, क्योंकि साम्यवादी अपनी लक्ष्यप्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा भी ले लेता है। मैं कहता हूं यदि अन्यान्य दल भी हिंसा का सहारा लेते हैं, तो फिर कम्युनिस्टों को दोष देने से क्या लाभ ? इतना ही नहीं, मुझे यह भी अमुभव हो रहा है, आज अहिंसा की बात करना प्रतिगामिता का लक्षण माना जाता है। आज का पढ़ा-लिखा वर्ग गांधीजी के द्वारा बताये गये अहिंसात्मक उपायों को दकियानूसी विचार मानता है । आस्था के बदलते हुए इस रूप का ही परिणाम है, आज स्थानस्थान पर बिना किसी संकोच के हिंसा, लूटपाट, आगजनी की घटनाएं बढ़
जनतन्त्र के प्रभाव का जहां तक प्रश्न है, मुझे लगता है जैसे आज उसकी रीढ़ ही टूट गयी है । स्वस्थ जनतन्त्र में हिंसा, उच्छृखलता, असहिष्णुता को कभी अवकाश नहीं होता। आज जब खुले रूप से यह सामने आ रहा है, फिर इसको जनतंत्र कहने में ही मुझको संकोच हो रहा है। विचारों के स्वातंत्र्य का यह अर्थ तो नहीं कि हम जनतंत्र की मर्यादाओं को ही भूल जाएं।
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