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समाजवाद और अहिंसा
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तंत्र को सम्हाले या फिर प्रजातंत्र के स्थान पर दूसरे तंत्र का सन्निवेश हो । प्रजातंत्र के प्रति जनता का विश्वास ही नहीं रहा है, ऐसा मैं आज भी नहीं मानता । स्थिति यह है कि प्रजातंत्र की ध्वजा मजबूत हाथों में नहीं है । योग्यता के अभाव में जन-मानस में एक तीव्र आक्रोश है । वह आक्रोश ही समय-समय पर फूटकर बाहर आता रहता है ।
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किसी नये शासन तंत्र की स्थिति भारत के मानस में अभी पैदा नहीं हो सकती । राजतंत्र और अधिनायकवाद के हृदय विदारक परिणामों को वह आज भी नहीं भूला है । इतना अवश्य है, प्रजातंत्र का मधुर परिणाम जो आज तक उसे मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है । प्रजातंत्र में से जो न्यायप्रियता, नीति- कुशलता, चरित्र-निष्ठा और समान अधिकार उसे मिलने चाहिए थे, वे नहीं मिल पाए हैं । प्रजातंत्र का रथ हांकने वाले व्यक्तियों में पांच गुण अत्यन्त आवश्यक होने चाहिए
१. न्यायप्रियता,
२. नीति - कौशल,
३. नैतिक आचरण,
४. सेवाभाव,
५. उदार दृष्टिकोण |
जब इन गुणों का नेतृ-वर्ग में अभाव हो जाता है, जनता का विश्वास टूट जाता है । आज भारत की भी यही स्थिति है । यह विश्वासहीनता की स्थिति देश के भविष्य के लिए भी कभी शुभ नहीं हो सकती । जनता एक सही दिशा का चुनाव कर ले, तो फिर भी यह एक शुभ संकेत है, अन्यथा इसका परिणाम कोई अच्छा नहीं दीखता ।
विद्यार्थी वर्ग हो या कर्मचारी वर्ग, उनकी मांग पूरी न हुई कि हिंसात्मक तोड़-फोड़ शुरू हो जाती है । यह स्थिति राष्ट्र के सभी वर्गो की है । किसी कार्य के पीछे न्याय और औचित्य बोलता हो तो उसकी भयंकरता को भी सहन किया जा सकता है । किन्तु जिसके पीछे कोई न्याय और औचित्य नहीं हो, वह कैसे सहन किया जाए ? जब पंच आयोग को स्वीकार किया गया, फिर उसके निर्णय पर, [ क्योंकि वह एक पक्ष की इच्छा के प्रतिकूल जाता है] हिंसा पर उतारू हो जाना भी उचित नहीं कहा जा सकता ।
इन परिस्थितियों को देखते हुए एक उदाहरण मेरी स्मृति में आ रहा है। एक बार साधुओं की एक जमात एक गांव में पहुंची। गांव के मुखिया लोग उनकी आवभगत के लिए पहुंचे और साथ ही निवेदन किया- 'आप लोग थोड़ी देर विश्राम कीजिए, हम बहुत जल्दी ही भोजन का प्रबन्ध कर रहे हैं ।'
भोजन की व्यवस्था में जरा विलम्ब हो गया । साधु लोग भोजन की
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