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व्यक्ति और समाज
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सत्य के रूप में स्वीकार किया है । इसी के आधार पर उसमें अनेक अवांछनीय तत्त्व विकसित हुए, जिनका आज के समाजशास्त्री धर्म की इन कुसेवा के रूप में वर्णन करते हैं
१. रूढ़िवादिता-धर्म ने रूढ़िवादिता को जन्म दिया । उसके नाम पर जनता परम्परा और रीति-रिवाज को तोड़ने का साहस नहीं कर
सकी।
२. शोषण-धर्म के नाम पर स्त्रियों का अत्यधिक शोषण होता रहा है । कर्मवाद के सिद्धान्त ने गरीबों को शोषण के विरुद्ध क्रान्ति करने से रोका
३. आलस्य और भाग्यवादिता-धर्म ने भाग्यवाद को प्रचारित किया। फलत: जनता आलसी और अकर्मण्य हो गई।
४. हिंसा और युद्ध --मानव इतिहास के पृष्ठ धर्म के नाम पर किए गए नर-संहार और जिहादों से भरे पड़े हैं।
५. घृणा-समाज में जातीय भेदभाव, घृणा और छुआछूत के लिए धर्म उत्तरदायी है।
समाजशास्त्रीय साहित्य में धर्म और नैतिकता का अन्तर इस आधार पर प्रतिपादित किया गया है कि कुछ बातें नैतिकता की दृष्टि से गलत किन्तु धर्म की दृष्टि से सही होती हैं । कभी-कभी धर्म समाजहित के विरोधी आचरण का विधान करता है । धर्म ने छुआछूत का विधान किया-नैतिकता को दृष्टि से यह गलत है । एक पत्नी अपने क्रूर और दुष्ट पति को नहीं छोड़ सकती-धर्म की दृष्टि से यह सही है किन्तु नैतिकता की दृष्टि से गलत है। सचाई यह है कि नैतिकता मनुष्य को आगे ले जाती है और धर्म मनुष्य के विकास को अवरुद्ध कर देता है।
इस समूची समाजशास्त्रीय समालोचना का आधार वह स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म या त्रिवर्ग का धर्म है। जैन-बौद्ध, सांख्य और वेदान्त ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया है उसके विषय में इस प्रकार की समालोचना नहीं की जा सकती। इनके द्वारा प्रतिपादित धर्म शाश्वत सत्य की व्याख्या है। उसका परिवर्तनशील समाज-व्यवस्था में कोई हस्तक्षेप नहीं है । धर्म के नाम पर समाज-व्यवस्था का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता । परिवर्तनशील तत्त्व को अपरिवर्तनशील तत्त्व के नाम से प्रचारित करने पर रूढ़िवादिता पैदा होती है। स्मृतिकारों ने परिवर्तनशील समाज-व्यवस्था का विधान किया । यदि उसका प्रस्तुतीकरण शाश्वत सत्य के रूप में नहीं होता तो धर्म का रूढ़िवादी रूप हमारे सामने नहीं होता। स्त्रियों की हीनता का प्रतिपादन भी स्मार्त धर्म की समाज-व्यवस्था का अंग है। शाश्वत धर्म से उसका कोई सम्बन्ध नहीं
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