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________________ १४६ अहिंसा : व्यक्ति और समाज ग्रह में अविरोध स्थापित नहीं किया जा सकता ? अनेकान्तवादी समन्वय और सापेक्षता के द्वारा विरोध में अविरोध की व्याख्या करता है, इसलिए यह प्रश्न होना स्वाभाविक है। किन्तु हम इस तत्त्व की उपेक्षा कर अनेकान्त को नहीं समझ सकते कि जिस गुण की अपेक्षा से विरोध होता है, उसी गुण की अपेक्षा से अविरोध नहीं होता । पदार्थ में नित्य और अनित्य-दोनों गुण अविरोधी हैं। किन्तु जिस गुण की अपेक्षा से पदार्थ नित्य है, उसी गुण की अपेक्षा से वह नित्य नहीं है। किन्तु नित्य और अनित्य-दोनों गुण एक ही पदार्थ में अविरोधी भाव से रहते हैं। इसीलिए पदार्थ नित्यानित्यात्मक होता है और उस पदार्थ की सापेक्ष दृष्टि से सामंजस्यपूर्ण व्याख्या की जा सकती है। समाज-व्यवस्था में हिंसा और अहिंसा, परिग्रह और अपरिग्रह-दोनों तत्त्व अविरोधभाव से रहते हैं। अनेकान्त के द्वारा समाज-व्यवस्था और मोक्ष-धर्म की एकता स्थापित नहीं की जा सकती। हिंसा और अहिंसा तथा परिग्रह और अपरिग्रह में अविरोध स्थापित नहीं किया जा सकता किन्तु समाज-व्यवस्था के साथ उनके सहावस्थान की व्याख्या की जा सकती है। हिंसा और परिग्रह को समाज-व्यवस्था से पृथक् नहीं किया जा सकता, इस अपेक्षा से समाज व्यवस्था और मोक्ष-धर्म में एकता नहीं है । समाज-व्यवस्था में हिंसा और परिग्रह की अल्पता की जा सकती है, इस अपेक्षा से समाज-व्यवस्था और मोक्ष-धर्म में एकता है। धर्म संवेदनातीत होने के कारण वैयक्तिक नहीं है, आत्मिक है। किन्तु वह व्यक्ति का अपना गुण है, इस अपेक्षा से वह वैयक्तिक भी है। नैतिकता व्यक्ति का अपना गुण है, इस अपेक्षा से वह वैयक्तिक है, किन्तु वह दूसरे के प्रति होती है, इसलिए सामाजिक भी है। वह सामाजिक है किन्तु सामाजिक आचार-संहिता से अभिन्न नहीं है। समाज की आचार-संहिता देश-काल के भेद से भिन्न-भिन्न, परिवर्तनशील और समाज की उपयोगिता के आधार पर निर्मित होती है । नैतिकता देश और काल की धारा में एकरूप, अपरिवर्तनशील और धर्म से प्रभावित होती है। धर्म और नैतिकता को शाश्वत सत्य की श्रेणी में रखा जा सकता है, समाज की आचार-संहिता को उस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वे दोनों व्यक्ति की आन्तरिक अवस्थाएं हैं। समाज की आचार-संहिता समाज का बाहरी नियमन है । यह शुद्ध अर्थ में सामाजिक है। नैतिकता उद्गम में वैयक्तिक और व्यवहार में सामाजिक है। धर्म शुद्ध अर्थ में आत्मिक और व्यवहार में वैयक्तिक है। त्रिवर्ग में अर्थ और काम के साथ जिस धर्म का उल्लेख है वह सामाजिक आचारसंहिता ही है। इसलिए महावीर ने काम, अर्थ और धर्म को लौकिक व्यवसाय कहा है । स्मृतियों में इसी धर्म की व्याख्या अधिक मात्रा में हुई है । सहस्राब्दियों से भारत की बहुसंख्यक जनता ने इसी को शाश्वत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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