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विश्व शान्ति की आचार-संहिता
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अभय नहीं रख सकता । 'अत्थि सत्यं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं '--शस्त्रों में परंपरा चलती है । अशस्त्र - - अहिंसा में परंपरा नहीं है । जिस राष्ट्र की नीति में दूसरे राष्ट्रों को दबाने के लिए शस्त्रों का विकास किया जा रहा है, वह राष्ट्र विश्व शान्ति में सबसे अधिक बाधक है। इसलिए निःशस्त्रीकरण की दिशा में विशेष प्रयत्न करना आवश्यक है। वह प्रयत्न एक साथ नहीं होगा, क्योंकि युग-युग से हिंसा के संस्कारों में पोषित जन-मानस अहिंसक शक्ति को पूर्ण रूप से अपनी स्वीकृति नहीं दे सकता । फिर भी धीरे-धीरे सलक्ष्य प्रयत्न करने से इस दिशा में प्रगति की संभावनाएं अवश्य हैं । विश्व एकता और विश्व सहकार की जो कल्पनाएं प्रबुद्ध व्यक्तियों के मस्तिष्क में उछल-कूद कर रही हैं, उनको साकार करने के लिए शस्त्रों की दौड़ को रोकना ही होगा । मेरे कथन का अभिप्राय यह नहीं है कि राज्य संचालन में समग्र रूप से अहिंसात्मक नीति का ही प्रभुत्व रहेगा, ऐसा सोचना अति कल्पना है । कोई भी समाज या राष्ट्र, अहिंसा के ही आधार पर नहीं चल सकता । हिंसा के आधार पर चलने वाला समाज अहिंसा के चरम उत्कर्ष का स्पर्श नहीं कर सकता, क्योंकि अहिंसा नितान्त वैयक्तिक तथ्य है । समाज में उसका प्रयोग हिंसा-शक्ति को निरस्त करने के लिए होता है । इससे हिंसा का प्रभाव क्षीण होता है और अहिंसा का वर्चस्व निखरता है ।
अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सद्भावना की दृष्टि से यह आवश्यक है कि प्रत्येक राष्ट्र अपने नैतिक दायित्वों के प्रति जागरूक रहे । शक्तिशाली राष्ट्र अल्प शक्तिशाली या अल्प विकसित राष्ट्र को हीन न माने । ऐसे राष्ट्रों के प्रति सहानुभूति हो सकती है, पर उन्हें हीन मानना माननीय दृष्टि से अपराध है । ये भौगोलिक सीमाएं वास्तविक नहीं हैं, इनके आधार पर मनुष्य- मनुष्य के बीच भेद की अनुमति सही समझ की परिणति नहीं है । इनको वास्तविक मानने से मनुष्य जाति की एकता खंडित होती है । मानवीय एकता की अनुभूति के लिए अपेक्षित है कि समर्थ राष्ट्र असमर्थ राष्ट्रों को किसी प्रकार की क्षति न पहुंचाएं। वे परस्पर मतभेद की स्थिति में समन्वय की नीति अपनाएं । इससे सद्भावनापूर्ण वातावरण का निर्माण होगा । मैं चाहता हूं कि यह अन्तर्राष्ट्रीय आचार संहिता विश्व शान्ति की आचार संहिता बने और इसके आधार पर सम्पूर्ण विश्व अभूतपूर्व शान्ति और सुख उपलब्ध करे ।
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