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________________ अहिंसा : व्यक्ति और समाज सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु, प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ।। वर्तमान में द्वन्द्व का समाधान अन्तःकरण में नहीं, तर्क में खोजा जा रहा है । नैतिक निर्णय का एकमात्र आधार आज तर्क ही रह गया है। सामाजिक कल्याण की धारणा के आधार पर भी नैतिक मूल्यों का निर्णय किया जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि अन्तःकरण और व्यक्ति गौण हैं तथा तर्क और समाज मुख्य हैं । क्या हम यह मान लें कि अन्तःकरण का प्रामाण्य आज समाप्त हो गया है ? एक वीतराग व्यक्ति का अन्तःकरण निश्चित रूप से प्रमाण होता है। वीतरागता की स्थिति से पहले भी सन्तुलित व्यक्ति का चित्त प्रमाण हो सकता है । पर हर व्यक्ति के अन्तःकरण को प्रमाण मानना खतरे से खाली नहीं है । एक उन्मत्त व्यक्ति के आत्मनिर्णय को वैधता का प्रमाणपत्र नहीं मिल सकता, क्योंकि उसका चिंतन अयथार्थ है, अधूरा है । ऐसे व्यक्तियों को मनचाहा करने की छूट मिल जाए तो प्रलय की आशंका को टाला नहीं जा सकता। हिटलर जैसे व्यक्तियों का अन्तःकरण ही युद्ध को जन्म देता है। इस सृष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त है कि विशुद्ध और सन्तुलित अन्तःकरण प्रमाण बन सकता है। इससे विपरीत दिशा में उसका प्रामाण्य अकिंचित्कर तर्क का जहां तक प्रश्न है, वह है मात्र बुद्धि का व्यायाम । उसका आधार केवल सत्य ही नहीं होता । असत् आधारों पर भी तर्क की अवस्थिति होती है । वह समाज और व्यक्ति दोनों को स्थापित भी कर सकता है और उखाड़ भी सकता है। इसलिए इसकी प्रामाणिकता भी संदिग्ध है। प्राचीन युग में तर्क विकसित नहीं हुआ था और अन्तःकरण ही सब कुछ था, यह एकांगी सत्य है। मेरे अभिमत से इन दोनों की विशुद्धि और सापेक्षता ही प्रामाण्य का आधार बन सकती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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