SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युद्ध की लपटों में कांपती संस्कृति ११६ को आशंकित कर देते हैं। फलत: शस्त्र-निर्माण की दौड़ शुरू हो जाती है। इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है कि जो देश जितनी अधिक चोट सहन करता है, वह आगे जाकर उतना ही सजग हो जाता है । युद्ध भी एक प्रकार का आघात है, जो मूल्य-परिवर्तन की दिशा में नया चिंतन दे सकता हैं । आकस्मिक आघात भीतर और बाहर दोनों ओर से रूपान्तरण करता है । एक व्यक्ति के सिर में चोट लगी। इस अप्रत्याशित चोट ने उसके स्नायु-संस्थान को प्रभावित किया और उसे अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध हो गया। एक व्यक्ति पक्षाघात से पीड़ित था। किसी समय उसके मकान में आग लग गयी। घर में भाग-दौड़ मची । उसने सुना । एक झटका-सा लगा। वह उठकर खड़ा हो मया और बाहर आ गया। देखने वालों के आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा । जो व्यक्ति अपना हाथ भी उठाकर इधर-उधर नहीं कर सकता था, उसमें अचानक उठकर दौड़ने की क्षमता कहां से आ गयी ? उस क्षमता का स्रोत था उसके अवचेतन मन पर होने वाला तीव्र आघात, जिसने उसको एक साथ पूरी शक्ति दे दी। . इसी प्रकार अप्रत्याशित रूप से लगने वाले युद्ध के आधात भी व्यक्ति और राष्ट्र की चेतना को झकझोर सकते हैं तथा उनसे कई दृष्टियों से विकास की संभावना रहती है। पर जरूरी नहीं है कि ऐसी स्थिति युद्ध से ही हो, दूसरे भी निमित्त हो सकते हैं । युद्ध भी निमित्त बनता हो तो भी प्रगति के लिए जान-बूझकर युद्ध को आमंत्रित करना उचित नहीं है । क्योंकि युद्ध से होने वाले गलत परिणामों को नजरअंदाज करने वाले व्यक्ति युद्ध को प्रगतिशीलता का सूचक मान सकते हैं, वास्तव में वह मानवीय मूल्यों का विघटक है और पाशविक मनोवृत्ति का प्रतीक है। स्पर्धा और संघर्ष ये दो बातें हैं। विकासमूलक कार्यों के लिए स्पर्धा का होना अनुचित नहीं है। पर बिना प्रयोजन टक्कर लेना और लडकर समाप्त हो जाना प्रशस्त तरीका नहीं है। संस्कृतियों का संगम लाभप्रद है। उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है, क्योंकि एक-दूसरे को देखने, परखने और समझने का अवसर बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । पर थोड़े हित के लिए अधिक अहित को मोल लेना समझदारी नहीं है । राजा दिलीप को सम्बोधित कर उसकी परीक्षा के लिए उपस्थित सिंह ने कहा अल्पस्य हेतोः बहु हातुमिच्छन् । विचारमुढ़: प्रतिभासि में त्वम् ।। अल्पहित के लिए अधिक हित को दांव पर लगा देना वैचारिक मूढ़ता का प्रतीक है । अतः सांस्कृतिक विकास के लिए शान्ति, सुख और समृद्धि को युद्ध की आग में झोंक देना किसी भी दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003066
Book TitleAhimsa Vyakti aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy