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युद्ध की लपटों में कांपती संस्कृति
आस्था के दो रूप हैं-चिंतन के स्तर पर और जीने के स्तर पर । जिस व्यक्ति के चिन्तन का स्तर भिन्न होता है और आचरण का स्तर भिन्न, उसकी आस्था विभक्त हो जाती है । विभक्ति भेद की प्रतीक है। भेद में थोपी हुई मान्यता को भी व्यक्ति अपनी सहमति देता है, किन्तु उसके अवचेतन मन की धारणाएं कुछ दूसरी होती हैं, इसलिए वह आस्था के अनुरूप जीवन नहीं जी सकता । मुझे ऐसा लगता है कि नैतिक मूल्यों के प्रति होने वाली आस्था भी घनीभूत नहीं है । नैतिकता का सिद्धांत सही है, पर उसे आत्मसात् करने से उपस्थित होने वाली कठिनाइयों के साथ मुकाबला करने की जब तक क्षमता नहीं है, तब तक व्यक्ति नैतिक नहीं हो सकता । नैतिकता के संदर्भ को एक बार गौण भी कर दिया जाए तो भी युद्ध की विभीषिका व्यक्ति को पीड़ित कर देती है । किन्तु इसके साथ वह यह भी जानता है कि युद्ध के द्वारा मेरे लिए जो प्राप्तव्य है, वह युद्ध से ही मिल सकता है । इसलिए वह शक्ति संपन्नता की स्थिति में युद्ध को टाल भी नहीं सकता ।
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एक बात और है । मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य की झगड़ालू वृत्ति को उसकी मूल वृत्ति में मान्यता दी है । अंग्रेजी भाषा के विख्यात साहित्यकार और दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने उक्त तथ्य के साथ अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कहा है कि मनुष्य में लड़ने की प्रवृत्ति एक प्रधान मूल प्रवृत्ति है । इसको सहज रूप में मोड़ना बहुत कठिन है । मुझे भी ऐसी प्रतीति होती है कि जब तक काम, क्रोध आदि मूल वृत्तियां समाप्त नहीं होतीं, तब तक युद्ध की संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता । ऐसी संभावनाएं जहां पुष्ट हो जाती हैं, वहां जो कुछ होता है, वह अतीत की आवृत्ति मात्र होता है । अत: नैतिक आस्था और युद्ध की संभावना को भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में समझना जरूरी
है ।
नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा और अणु अस्त्रों - इन दोनों में कोई तुक नहीं है । क्योंकि आणविक अस्त्रों का निर्माण स्वयं ही अनैतिक है । राजनीति और अर्थनीति के क्षेत्र में असंतुलन बढ़ता है तथा असुरक्षा के भाव पनपते हैं। संतुलन और सुरक्षा का दूसरा उपाय न पाकर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र शस्त्रों का निर्माण करते हैं । किन्तु ऐसा करने वाले आतंक और असुरक्षा से मुक्त नहीं हो पाते । जो राष्ट्र शस्त्र-निर्माता हैं, वे स्वयं आशंकित हैं। संभावित अनिष्ट की आशंका से बचाव के लिए जो शस्त्र बनते हैं. वे दसरे राष्ट
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