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अतीत का अनावरण ८५ मनाही नहीं है । अपने-अपने स्थान पर बैठने की मनाही थी । मैं वहां से यहां आ गया। यह विभाग का स्थल है। यहां कोई खड़ा रहे या बैठे, इससे आपको क्या ? वे हमारे संघ में 'कोतवाल' कहलाते थे । वे अनुशासन की क्रियान्विति का पूरा ध्यान रखते थे। बड़े जागरूक व्यक्ति थे । मेरा तर्क बहुत साफ था । फिर भी उनके गले नहीं उतरा । वे गुरुदेव के पास पहुंचे, सारी घटना गुरुदेव के सामने रख दी । गुरुदेव ने मुझे बुलाकर कहा- तुम वहां क्यों बैठे? मैंने अपना तर्क फिर दोहराया। गुरुदेव को मेरा तर्क मान्य नहीं हुआ। उन्होंने मुझे बहुत कड़ा उलाहना दिया। मैंने विनम्रभाव से उसे सुना और सहा । मैं कुछ भी नहीं बोला। चुपचाप अपने स्थान पर आ गया किन्तु मेरा मन प्रतिक्रिया से भर गया। मैं मन ही मन सोचता रहा- मेरा कोई प्रमाद नहीं हुआ । मैंने कोई गलती नहीं की । शिवराजजी स्वामी ने अपने आवेश के कारण मुझे फंसा दिया और गुरुदेव ने भी उनकी बात मानकर मुझे उलाहना दे दिया । यह प्रतिक्रिया लम्बे समय तक मेरे मन पर होती रही । मैं काफी समय तक इस घटना को अपने मन से नहीं निकाल सका । यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी। पर मेरे लिए यह बड़ी बात इसलिए बन गई कि मेरी भावना पर दोहरी चोट पहुंची। मैं कल्पना नहीं करता था कि गुरुदेव की इतनी प्रियता होते हुए भी अकारण ही उनसे इतना कड़ा उलाहना सुनना पड़ेगा। दूसरी बात, मेरे मन पर एक छाप थी कालूगणी के व्यवहार की। मैंने सुना था - पूज्य कालूगणी को आचार्यों से कभी उलाहना नहीं मिला । मेरे मन का भी संकल्प था कि मैं भी कभी गुरुदेव से उलाहना नहीं सुनूंगा । मेरा संकल्प टूटता - सा लगा, इससे मुझे बहुत आघात पहुंचा ।
मंत्री मुनि की सीख
मैं कोई प्रमाद न करूं, कभी उलाहना न सुनूं, किसी के प्रति कोई अनिष्ट चिन्तन न करूं, अध्ययन में किसी से पीछे न रहूं- इन छोटे-छोटे संकल्प- सूत्रों ने मेरी चेतना के जागरण में योग दिया, ऐसा मैं अनुभव करता हूं। जीवन-निर्माण में छोटी-छोटी बातें बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । प्रतिक्रमण के पश्चात् मैं मंत्रीमुनि श्री मगनलाल स्वामी के
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