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________________ ८४ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा, जिससे मेरे विद्यागुरु को यह सोचना पडे कि मैंने जिस व्यक्ति को तैयार किया, वह मेरी धारणा के अनुरूप नहीं बन सका। मैं किसी भी व्यक्ति का अनिष्ट चिन्तन नहीं करूंगा। मेरी यह निश्चित धारणा हो गई थी-दूसरे का अनिष्ट चाहने वाला, उसका अनिष्ट कर पाता है या नहीं कर पाता, किन्तु अपना अनिष्ट निश्चित ही कर लेता है। इन सूत्रों ने मेरा जीवन-पथ सदा आलोकित किया। मुझे कभी भी दिग्भ्रान्त होने का अवसर नहीं मिला। संधि-काल गंगापुर में पूज्य कालूगणीजी का स्वर्गवास हो गया। समूचे संघ को वह वज्राघात जैसा लगा। मुनि तुलसी अब आचार्य हो गए। पहले वे हम से बहुत निकट थे। अब कुछ दूर-से लगने लगे। पहले केवल हमारे थे, अब वे सबके हो गए। ऐसा लगा, पहले जो करुणा की सघनता थी वह छितरा गई। पहले उसके भागीदार हम कुछेक साधु ही थे, अब हजारों-हजारों व्यक्ति हमारे सहभागी हो गए। उनसे अलग आहार करना भी अच्छा नहीं लग रहा था, पर अब सह-भोज भी संभव नहीं था। अध्ययन की व्यवस्था भी कुछ समय के लिए गड़बड़ा गई। ये सारे संधिकाल के अनुभव हैं। जैसे-जैसे समय बीता, वैसे-वैसे स्थितियों का नवीनीकरण होता गया। दोहरी चोट गंगापुर से विहार कर गुरुदेव बागोर पहुंचे। वहां मुझे एक नया अनुभव हुआ। आदेश की घोषणा की गई-पांच मिनट के भीतर सब साधु जहां गोचरी का विभाग होता है वहां चले जाएं, कोई अपने स्थान पर बैठा न रहे। हमारे संघ में आचार्य के आदेश का पालन बड़ी तत्परता के साथ होता है। सभी साधु अपने-अपने पात्र लेकर उस स्थल पर पहुंच गए। मैं भी पहुंच गया। जिस स्थान पर गोचरी का विभाग हो रहा था, उसके पास ही एक केलू का छपरा था। मैं वहां जाकर बैठ गया। शिवराजजी स्वामी ने मुझे देखा और बोले-बैठने की मनाही है, फिर तुम कैसे बैठे? मैंने कहा-यह विभाग का स्थल है। यहां बैठने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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