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७ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ मुनि तुलसी का प्रोत्साहन
प्रत्येक व्यक्ति के मन में विकास की, आगे बढ़ने की भावना रहती है। एक किशोर में भी यह भावना बीजरूप में रहती है। उसे प्रोत्साहन मिलता है तो वह प्रस्फुटित हो जाती है। मुनिवर मुझे बार-बार कहते-तुम श्रम नहीं करोगे तो पीछे रह जाओगे और पूरा श्रम करोगे तो सबसे आगे जा सकते हो। पीछे रहने की बात कभी अच्छी नहीं लगती। मन में एक स्पर्धा जाग गई और मैं सदा इस स्थिति में जागरूक हो गया। एक दृढ़ संकल्प जाग गया-मैं किसी से पीछे नहीं रहूंगा। पूज्य कालूगणी कहा करते थे- 'बातेडी की बिगडे'; 'जो बातूनी होता है, बातों में ही रस लेता है, पढ़ने में रस नहीं लेता, वह बिगड़ जाता है।' इस उक्ति ने मन पर चोट की और बातों में रस कम होने लगा। मुनिवर ने कितनी बार इस सचाई को समझाया-अभी तुम बातें करोगे तो जीवन भर दूसरों के नियंत्रण में रहना होगा। इस समय अध्ययन करोगे तो बड़े होने पर स्वतंत्र हो जाओगे। फिर चाहे जितनी बातें करना, कोई टोकने वाला नहीं होगा। युक्ति-संगत बात मन में घर कर जाती है। कोरा आक्रोश या कोरा उलाहना जहां प्रतिक्रिया पैदा करता है वहां युक्ति-संगत बात अन्तःकरण को छू लेती है। सचमुच आकर्षण की धारा बदल गई। मन अधिक से अधिक ज्ञानार्जन करने के लिए उत्सुक हो गया।
धातुपाठ
उन दिनों कंठस्थ करने की परंपरा बहुत प्रचलित थी। मैं एक दिन पूज्य कालगणी के पास पहुंचा। उन्होंने कहा--'अभी धातुपाठ कंठस्थ किया या नहीं? मैंने कहा-'नहीं किया।' उन्होंने कहा-'कंठस्थ करो।' मैंने उसे कंठस्थ कर लिया। मुनि तुलसी ने आचार्य हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण कंठस्थ करना शुरू कर दिया। पूज्य गुरुदेव ने मुझे कहा-'तुम भी उसे कंठस्थ करो।' मुझे कुछ मानसिक संकोच हुआ-मैं मेरे विद्या-गुरु के साथ कैसे चल पाऊंगा? पर मुनिवर ने यही चाहा और प्राकृत व्याकरण को कंठस्थ करने में उन्होंने मुझे अपना साथी बना लिया।
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