SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतीत का अनावरण ७७ थी । मैं शौच से निवृत्त होकर कुछ विलम्ब से आया। मंत्री मुनि ने कहा - नाथूजी ! आओ और इस पाठ का उच्चारण करो। मैंने उस पाठ को पढ़ा और उसमें सफल रहा। मंत्री मुनि बोले- आज तो यह बहुत सफल रहा है। तब पूज्य कालूगणी ने कहा- अभी बच्चा है। अभी सफलता का क्या पता चले ? पाली मैं मैंने पार्श्वनाथ स्तोत्र की प्रतिलिपि की । वह प्रति पूज्य गुरुदेव के सामने प्रस्तुत की। उन्होंने उसे देखा और प्रसन्नमुद्रा में कहा - 'अब तुम्हारी लिपि ठीक हो गई है ।' मुझे अपनी सफलता पर विश्वास होता गया । कविता का द्वार खुल गया पूज्य कालूगणी जोधपुर में चातुर्मास बिता रहे थे । भाद्रव शुक्ला पूर्णिमा उनके पट्टारोहण का दिन था । हम विद्यार्थी साधु भी गुरुदेव के अभिनन्दन में कुछ बोलना चाहते थे। हमने मुनिवर से प्रार्थना की और उन्होंने हम सबके लिए श्लोक बना दिए । मुझे श्लोक पसन्द नहीं आए। मैंने कहा - 'आपने दूसरे साधुओं के लिए श्लोक अच्छे बनाए हैं, मेरे श्लोक उन जैसे नहीं हैं।' मुनिवर ने कहा- 'तुम्हारे श्लोक अच्छे हैं।' मैं अपने आग्रह पर अड़ा रहा और आप मुझे समझाते रहे। आखिर मैं माना ही नहीं, तब आप बोले- 'आज से यह प्रतिज्ञा है कि भविष्य में फिर तुम्हारे लिए श्लोक नहीं बनाऊंगा।' इस प्रतिज्ञा ने मेरे लिए कविता का द्वार खोल दिया। उस आग्रह पर जब-जब मैं उस श्लोक को पढ़ता हूं तो मुझे मेरे अज्ञान पर हंसी आती है । मैं मानता हूं कि मुनिवर ने जो निष्ठा का वरदान देना चाहा, उसे मैं समझ नहीं सका। मेरे न समझने पर भी उन्होंने वह वरदान मुझे दे दिया। तब मैं समझ सका कि श्लोक कितना मूल्यवान् है 'तात के पुत्र अनेक हुवै पर नन्दन के पितु एक कहावै, ज्यूं घन के बहु इच्छु हुवै पिण चातक तो चित्त मेघ ही ध्यावै । सागर के मच्छ-कच्छ हुवै बहु मीन तो चित्त समुद्र ही चावै, त्यों गुरु के बहु शिष्य हुवै पिण एक गुरु नित शिष्य के भावै॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy