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५८ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ
आपका साध्वी-समाज संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा है। संख्या के अनुपात से गुणात्मकता भी बढ़े, इस दृष्टि से आप साध्वी-समाज से क्या अपेक्षाएं रखते हैं तथा क्या विशेष निर्देश देना चाहते हैं? । हमारा साध्वी-समाज निश्चित ही एक समाज है। उसमें नयी जिज्ञासाओं की स्फुरणा है। वह कुछ होने या बनने की चाह भी रखता है, पर इसके लिए उसे विशिष्ट संकल्प-शक्ति का संचय करना होगा तथा तदनुरूप अपने आपको ढालना होगा। इस दृष्टि से सबसे पहली बात है स्वार्थ का विर्सजन। कोई भी व्यक्ति या समाज तब तक विशिष्ट नहीं बन सकता, जब तक उसमें स्वार्थ-चेतना से मुक्त होने का संकल्प दृढ़ नहीं हो जाता। व्यक्ति की स्वार्थ-चेतना उसे खान-पान जैसी छोटी बातों में उलझा देती है तो कभी किसी बड़ी बात को लेकर उत्पात मच जाता है। साध्वियों से मेरी दूसरी अपेक्षा है-दीर्घकालीन चिंतन की क्षमता का विकास। तत्काल जो कुछ प्राप्त होता है उस पर तात्कालिक प्रतिक्रिया दीर्घकालीन हितों के पक्ष में नहीं होती इसलिए तत्कालीन प्रतिक्रिया को सुरक्षित रखते हुए समय पर ही उस संबंध में निर्णय लेना उचित है। तीसरी बात है-शिक्षा का गहरा अभ्यास। अध्ययन का धरातल ठोस न हो तो पल्लवग्राही विद्वत्ता से व्यक्ति न अपने आपको उपलब्ध कर सकता है और न ही शिक्षा के क्षेत्र में नये आयामों का उद्घाटन कर पाता है।
सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक बात है अनुप्रेक्षा और ध्यान का अभ्यास, वह भी वृत्तियों को रूपान्तरित करने के उद्देश्य से। इन सब बातों के प्रति साध्वी समाज जागरूक रहा तो वह वर्तमान की अपेक्षा अधिक प्रबुद्ध और गतिशील हो सकता है।
* १५ फरवरी १६७६, महाप्रज्ञ से लिया गया एक साक्षात्कार।
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