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________________ ३० अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ बना दिया। संघ की सारणा, वारणा, आलोयणा देना आदि कार्य वे ही करते। उससे कुछ नया करने की बात मेरे मन में आई। ‘अकडं करिस्सामि'-जो नहीं किया, वह करूं, यह मेरी मनोवृत्ति है। इस ऋषि मनोवृत्ति का उल्लेख अश्वघोष ने इन शब्दों में किया है“राज्ञां ऋषीणां चरितानि तानि, कृतानि पुत्रैरकृतानि पूर्वैः ।' इस मनोवृत्ति ने मुझे प्रेरित किया-मैं अपने युवाचार्य को आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित करूं। तेरापंथ के भाग्यविधाता आचार्य भिक्षु और भिक्षु शासन की परम्परा के अनुसार आचार्य अपने उत्तराधिकारी के रूप में युवाचार्य की नियुक्ति करते हैं और मैंने भी की है। पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने अपने युवाचार्य को आचार्य के रूप में नहीं देखा। मैं इसे देखना चाहता हूं। इस चाह को मैंने आकार दे दिया। ३. मैंने सोचा-अस्सी वर्ष की अवस्था हो गई है। स्वास्थ्य भी अनुकूल नहीं है। विश्राम की अपेक्षा है। शासनसत्ता और अधिकार के बने रहने पर श्रम की अनिवार्यता होती ही है। श्रम कम करना है तो क्यों नहीं इस पद को युवाचार्य में प्रतिष्ठित कर दिया जाए। ४. मैंने सोचा-एक शिष्य आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित होकर अपने गुरु के प्रति जितना विनम्र हो सकता है, उसका निदर्शन अकृतज्ञ मनोवृत्ति वाले युग के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए। 'अणंतनाणोवगमोविसंतो'-इस आगमवाणी की सत्यता को प्रमाणित करना चाहिए। ५. मैंने सोचा-मेरे इस कार्य से युग को यह मार्गदर्शन मिल सकता है-एक समय सीमा के बाद पद, सत्ता, अधिकार आदि को किसी दूसरे में प्रतिष्ठित कर स्वयं को हल्का जीवन जीना चाहिए। ६. एक कल्पना ने जन्म लिया- 'मैंने धर्म को निर्विशेषण बना दिया। अणुव्रत धर्म है किन्तु जैन, बौद्ध, वैदिक आदि किसी विशेषण से जुड़ा हुआ नहीं है। निर्विशेषण धर्म का प्रवर्तक स्वयं निर्विशेषण क्यों नहीं बने? 'तुलसी' यह नाम जनता के मन में घुल गया है। अब उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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