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१६४ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ दिया गया है कि परिग्रह को त्यागो-पदार्थ से भी दूर रहो।
पर्दा भय और ज्ञानावरण व दर्शनावरण के उदय का स्पष्ट निमित्त है इसलिए उसे बुराइयों का हेतु और त्याज्य कंहा जाए, यह अनुचित नहीं। ___लोग कहते हैं-पर्दा सामाजिक प्रश्न है। उसे धर्म के साथ क्यों जोडा जाए? साधओं को क्या मतलब कि वे उसके बारे में कुछ कहें? प्रश्न किस दिशा में जाता है, करने वाले ही जाने। सामाजिक बुराई को मिटाने का उपदेश तो हमारे साधु-गण हजारों वर्षों से देते आए हैं। भगवान् महावीर ने जब कहा-ये जितने गीत गाने हैं वे सब विलाप मात्र हैं। ये जितने नाट्य हैं, वे सब विडम्बना मात्र हैं। ये जितने आभूषण हैं, वे सब भार भूत हैं। ये जितने काम भोग हैं, वे सब दुःख देने वाले हैं। ये गीत, नाट्य आभूषण आदि असामाजिक नहीं हैं। सब सामाजिक हैं और सामाजिक बुराई भी नहीं है, फिर भी भगवान् ने इनको मोह-वृद्धि का हेतु समझा इसलिए इनको हेय बतलया। बुराई आखिर बुराई ही होती है, “भले फिर वह सामाजिक हो या वैयक्तिक। बारह व्रतों में सामायिक आदि वैयक्तिक उपासना के व्रत हैं वहां कन्यालीक आदि अनेक अतिचार सामाजिक बुराइयों के प्रतिकार के लिए हैं। ओसर-मोसर आदि सामाजिक रूढ़ियां नहीं हैं क्या? उसके बारे में क्या साधु कुछ नहीं कह सकते? जब समाज-सम्मत बुराई को छोड़ने का भी उपदेश दिया जा सकता है, तब उस बुराई के बारे में क्यों नहीं कहा जाए, जो समाज-सम्मत भी न हो।। ___ पर्दा एक उदाहरण है। इस कोटि की अनेक बुराइयां हो सकती हैं और उनका प्रतिकार किया जा सकता है। दहेज क्या है? एक देता है और दूसरा लेता है। इस लेन-देन में हस्तक्षेप करने की क्या आवश्यकता है ? किन्तु यह लेन-देन में हस्तक्षेप नहीं, यह बुराई का प्रतिकार है। साधु-साध्वियों का स्वर्गवास होने पर रुपये-पैसों की उछाल की परम्परा रही है। गत वर्ष गुरुदेव ने यह सुझाया कि यह अब नहीं होनी चाहिए? इस पर भी कुछ चर्चाएं उठीं कि क्या यह अन्तराय नहीं है? यह प्रश्न है। प्रश्नकर्ता स्वतंत्र भी होता है। जिज्ञासा हो वहां तक स्वतंत्रता भी उपयुक्त है। वह न हो तो स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी नहीं होना चाहिए।
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