________________
परिवर्तन के लिए व्यापक दृष्टिकोण चाहिये १६५ मैं नहीं कह सकता कि साधु जो होते हैं, वे सब गीतार्थ ही होते हैं, रूढ़ियां और संकीर्ण विचारों से मुक्त ही होते हैं। देश-काल के सम्यक् आकलन की क्षमता सबको प्राप्त होती है। श्रावकों के लिए तो कहा भी क्या जाए? वे उत्सर्ग और अपवाद के तत्त्व से सर्वथा अनभिज्ञ से हैं। उनकी ज्ञान की स्थिति बहुत ही अपरिपक्व है। उन्होंने जो कुछ सुना है, देखा है, उसी को वे सर्वोपरि प्रमाण मानते हैं। यह ठीक भी है पर उससे आगे कोई सत्य बाकी नहीं है, उससे आगे करने का कल्प नहीं है यह मानना ठीक नहीं है। एकांगी दृष्टिकोण सदा भयंकर होता
है।
कल तक जो कार्य साधु नहीं करते थे, वह आज कर सकते हैं। आज तक जो कार्य करते आए हैं, उसे छोड़ा जा सकता है। कल तक जो तत्त्व समझ में नहीं आया, वह आज आ सकता है। आज तक जो तत्त्व जिस रूप में समझा गया, उसकी समझ में परिवर्तन भी हो सकता है। साधुओं के कुछ नियम स्थित हैं, जो मौलिक हैं। कुछ नियम अस्थित भी है। कुछ नियम ऐसे हैं जिनके बारे में चिन्तन हुआ है। कुछ नियम ऐसे हैं जिनके बारे में चिन्तन नहीं हुआ है या नहीं जैसा हुआ है। आगमों के अनेक पाठ आज भी विवादास्पद हैं, अनेक पाठों को बड़े-बड़े आचार्यों ने 'केवलीगम्य' कहकर छोड़ा है। आचार्य भिक्षु ने अज्ञात विषय के ज्ञान की सम्भावना को अस्वीकार नहीं किया। उन्होंने लिखा है-“श्रद्धा, आचार, कल्प या सूत्र का कोई नया विषय सामने आए तो बहुश्रुत साधु उसकी संगति बिठा लें।" यदि नये विषय की कोई संभावना ही न हो तो वे ऐसा क्यों लिखते? इतिहास में इस घटना की पुनरावृत्ति होती रही है कि आदि प्रवर्तक महापुरुष का चिंतन सहज होता है किन्तु उनके कुछ अनुयायी उसे व्याख्याओं के जाल में फंसा जटिल बना देते हैं और उसके आशय को न समझ केवल शब्द की दुहाई देते रहते हैं। ____ आज हमारे कुछ श्रावक एक उलझन में हैं। साधु या श्रावक कोई भी हो, उलझन तब तक मिटती भी नहीं जब तक दृष्टिकोण अनाग्रह पूर्ण न बन जाए। आज तक यह नहीं हुआ, अब कैसे होता है? इस दृष्टि से जो देखते हैं और इसी तर्क के आधार पर जो सोचते हैं वे न
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org