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________________ परिवर्तन की परम्परा : १ १६५ हम जानते हैं कि साधु को रात में न कुछ खाना है और न कुछ पीना है। किन्तु कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी मुनि को रात में भयंकर प्यास लग गई और वह उस प्यास-जन्य कष्ट को सहने में असमर्थ है, उसमें धृति नहीं है, वह पानी पी लेता है। उसे प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। __ मुनि जंगल में से गुजर रहे हैं। वे प्यास से क्लांत हो गए। भयंकर प्यास लगी है। कुछ मुनियों में धृति है। वे उस कष्ट को प्रसन्नतापूर्वक सह लेते हैं। कुछ मुनि उस कष्ट को सहन नहीं कर पाते। यह जानते हुए भी कि मुनि को कच्चा पानी नहीं पीना चाहिए, वे तालाब या झरने का पानी लेते हैं। उन्हें चातुर्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यह 'चातुर्मासिक' शब्द प्रायश्चित्त की एक संज्ञा है। मुनि रात को दवा नहीं ले सकता, यह सामान्य विधि है। कोई मुनि आपरेशन कराता है। डॉक्टर के निर्देशानुसार वह अत्यन्त आपेक्षिक स्थिति में रात में दवा ले लेता है। वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। उसे प्रायश्चित्त आता है। सारे प्रायश्चित्त निश्चित हैं-अमुक कार्य के लिए अमुक प्रायश्चित्त और अमुक कार्य के लिए अमुक प्रायश्चित्त। आप पूछेगे कि पहले तो ऐसा नहीं होता था, अब कैसे हो रहा है? यह जटिल प्रश्न है। सामान्यतया हर आदमी यह सोचता है कि पहले ऐसा नहीं होता था, आज हो रहा है। या पहले ऐसा होता था, आज नहीं हो रहा है। सामान्य आदमी इसी आधार पर निर्णय करने का प्रयत्न करता है। यह आधार उचित नहीं है। इसका कोई अर्थ नहीं कि पहले होता था, आज नहीं हो रहा है या पहले नहीं होता था, आज हो रहा है। हमारे चिन्तन का आधार यह होना चाहिए कि आज जो हो रहा है वह आगम से सम्मत है या नहीं? हमारी सारी परंपराओं का एक मात्र आधार है-आगम। वैदिक परंपरा के निर्णय का मानदंड होगा कि यह तथ्य वेद-विहित है या नहीं? इसका समर्थन वेदों से होता है या नहीं? बौद्ध अपनी परंपरा के लिए पिटकों का समर्थन खोजेंगे, इसी प्रकार जैन परंपरा का कोई विधि-विधान या आचरण होगा तो हमें यह खोजना होगा कि यह कार्य आगमों से समर्थित है या नहीं? आगमों में इसकी चर्चा है या नहीं? यदि है, तो वह उचित है, चाहे उस परंपरा का हजार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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