SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ मृगापुत्र ने कहा - " तात ! जंगल मे हरिण घूमता है । वह कभी बीमार भी होता होगा। बीमार हो जाने पर वह एक वृक्ष की छांह में बैठ जाता है। जब ठीक होता है तब खाने-पीने के लिए चल देता है । वैसे ही मैं भी 'मिगचारिअं चरिस्सामि' - मृगचारिका का आचरण करूंगा।" एक परंपरा ऐसी रही है, एक जमाना ऐसा रहा है कि मुनि कभी चिकित्सा न कराए, क्योंकि जब शरीर को छोड़ ही दिया तो फिर चिकित्सा से क्या प्रयोजन ? समय बदला । चिन्तन में परिवर्तन आया। परिवर्तन यह आया कि जो 'जिनकल्प' की साधना कर रहा है, जो 'जिनकल्पी ' है, वह चिकित्सा नहीं करा सकता, किन्तु जो 'स्थविरकल्पी' है, वह चिकित्सा करा सकता है, किन्तु सावध चिकित्सा नहीं करा सकता। संभव है छेद सूत्रों के समय में यह अपवाद भी निर्मित हो चुका था कि जो सावध चिकित्सा कराएगा, उसे इतना प्रायश्चित्त आएगा । सावद्य चिकित्सा करानी नहीं है किन्तु बीमार साधक धृति से दुर्बल है, कष्ट को सहन नहीं कर सकता, ऐसी स्थिति में यदि वह अपवाद मार्ग का सेवन करता है तो उसे अमुक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है 1 मुनि आपरेशन कराते हैं । प्रश्न हो सकता है कि वे आपरेशन कैसे करा सकते हैं? प्रश्न ठीक है । वे आपरेशन नहीं करा सकते । किन्तु यदि धृति नहीं है, सहन करने की शक्ति नहीं है, सहन नहीं कर सकता - इस अधृति की स्थिति में वह आपरेशन कराता है । यह अपवाद मार्ग का सेवन है । इसके लिए प्रायश्चित्त की विधि है। 1 छेद सूत्रों की मुख्य बात है कि मुनि को जो काम नहीं करना है, वह काम यदि कोई मुनि कर लेता है तो उसके पीछे कारण होता है - या तो प्रमाद होता है या अधृति होती है । अधृति का अर्थ है-धैर्य न रख पाना, सहन नहीं कर सकना । दोष का सेवन दो प्रकार से होता है । या तो साधक दर्प (प्रमाद) के कारण दोष का सेवन करता है या अधृति के कारण दोष का सेवन करता है । दोष सेवन को प्रतिसेवना कहते हैं । प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं- दर्प प्रतिसेवना और कल्प प्रतिसेवना । दर्प प्रतिसेवना का अर्थ है-दर्प के कारण दोष का सेवन करना और कल्प प्रतिसेवना का अर्थ है - जान-बूझकर सहन न कर सकने के कारण दोष का सेवन करना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy