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________________ परिवर्तन की परम्परा : १ १६३ बदलती हैं, परिवर्तित होती हैं। अभी हम उस धर्म की चर्चा नहीं कर रहे हैं जो शाश्वत है। हम धर्म के परिपार्श्व में होने वाली व्यवस्थाएं, होने वाले नियम और अनुशासन की चर्चा कर रहे हैं। इनमें परिवर्तन आ सकता है, आया है और आएगा भी। इतिहास को जानने वाला यह अस्वीकार नहीं करेगा कि नियम या अनुशासन सदा एक-सा कभी नहीं रह सकता। जो नियम बनता है, वह देश-काल-सापेक्ष होता है। अध्यात्म देश-काल-सापेक्ष नहीं होता। उसमें परिवर्तन नहीं आ सकता। संगठन में व्यवस्थाएं होती हैं। उन व्यवस्थाओं में परिवर्तन आया है, आता है और आता रहेगा। तब तक परिवर्तन आता रहेगा जब तक धार्मिक में चिन्तन बना रहेगा। कोई भी धार्मिक चिन्तन-शून्य नहीं होता। वह परिस्थितियों की सर्वथा उपेक्षा नहीं कर सकता। वह परिस्थितियों के परिपार्श्व में जीता है। वह सारे परिवेश के संदर्भ में, देश-काल के आधार पर अपने जीवन की सामाचारी का नियमन करता है। यह सामाचारी है। एक होता है धर्म और एक होती है सामाचारी। धर्म होता है आत्मा का, व्यक्ति का। सामाचारी होती है संघ की। उदाहरण से इसे समझें। एक समय था; मुनि की सामाचारी यह थी कि वह चिकित्सा न कराए। यह सामाचारी निश्चित थी। इसीलिए बाईस परीषहों में एक परीषह है-'तेगिच्छं' चिकित्सा। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है-'तेगिच्छं नाभिनंदेज्जा' -मुनि चिकित्सा की मन से भी वांछा न करे। उत्तराध्ययन सूत्र के उन्नीसवें अध्ययन में एक सुंदर संवाद उपलब्ध है। मृगापुत्र दीक्षा लेने के लिए तैयार होता है। माता-पिता उसे समझाते हुए कहते हैं-'पुत्र! तुम सुखोचित हो। तुम्हारा शरीर इतना कोमल और इतना मृदु है कि तुम प्रव्रज्या-मार्ग में आने वाले भीपण कप्टों को कैसे सहन करोगे? उन्होंने इतनी बातें बताईं कि कोई भी आदमी उन्हें सुनकर साधु बनने से विमुख हो सकता है। मृगापुत्र अपनी भावना में दृढ़ था। वह दीक्षा से विमुख नहीं हुआ। अन्त में माता-पिता ने कहा- 'पुत्र ! देखो मुनि-जीवन अप्रतिकर्म का जीवन है। वहां बीमारी हो जाने पर चिकित्सा नहीं कराई जा सकती। तुम कैसे रह सकोगे? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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