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________________ १६२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ तत्-तत् अनित्यम्' -जो-जो कृतक है, वह-वह अनित्य है यह अकाट्य नियम है। 'यत्-यत् अकृतकं तत्-तत् नित्यम्, यथा आकाशः'-जो अकृतक है वह नित्य है, जैसे आकाश। आकाश नित्य है। उसे कभी बदला नहीं जा सकता। इतनी तेज सर्दी है, आकाश में कोई परिवर्तन नहीं आता। हमारी चमड़ी फट जाती है, बिवाई हो सकती है, पर आज तक कभी आकाश नहीं फटा, उसके बिवाई नहीं हुई। इतनी तेज वर्षा होती है, आकाश का कुछ नहीं बिगड़ता। इतनी भीषण गर्मी पड़ती है, आकाश कभी गर्म नहीं होता। कोई परिवर्तन नहीं होता उसमें, क्योंकि वह नित्य है, शाश्वत है। जैसे आकाश नित्य है, वैसे ही आत्मा भी नित्य है, चेतना भी नित्य है। उसे कभी बदला नहीं जा सकता। आज तक दुनिया में चेतन अचेतन नहीं बना और अचेतन चेतन नहीं बना। दोनों में अत्यन्ताभाव है, एक का दूसरे में अत्यन्त अभाव है। एक को दूसरे में कभी नहीं बदला जा सकता। अध्यात्म ही वास्तव में धर्म है। शुद्ध चेतना का व्यापार, शुद्ध चेतना का प्रयोग, जीवन के रागद्वेष-शून्य क्षण-ये सब धर्म हैं। धर्म की इस भाषा को कोई नहीं बदल सकता। हम यह न भूलें कि जहां एक धार्मिक व्यक्ति रहता है, दो रहते हैं, तीन रहते हैं, चार रहते हैं, दस रहते हैं, वहां धार्मिकों का भी एक समाज बन जाता है, समूह बन जाता है, गण और संघ बन जाता है। साधुओं के भी गण हैं, संघ हैं। हमारे साधुओं का गण भिक्षुगण कहलाता है, भिक्षु शासन कहलाता है। साधुओं का भी गण होता है, समूह होता है, संघ होता है। ___ प्राचीन साहित्य में तीन शब्द आते हैं-कुल, गण और संघ। कुल छोटा होता है। गण उससे बड़ा होता है और संघ उससे भी बड़ा। एक शब्द है-शासन। शासन का तंत्र भी होता है। वह बदलता है। व्यवस्था बदलती है। कुल, गण और संघ के नियम भी बदलते हैं, क्योंकि नियम सुविधा के लिए बनाए जाते हैं, उपयोगिता के लिए बनाए जाते हैं। जब उनकी उपयोगिता या प्रयोजन समाप्त हो जाता है तब वे नियम बदल दिए जाते हैं, नये नियम बना दिए जाते हैं। व्यवस्थाएं निर्मित होती हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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