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________________ ३०. परिवर्तन की परम्परा : १ आपका सीधा प्रश्न होगा, परिवर्तन तो दुनिया में होता है किन्तु धर्म को हम शाश्वत मानते हैं, उसमें परिवर्तन कैसे हो सकता है? दो तथ्य हैं हमारे सामने एक शाश्वत और एक परिवर्तनशील। हम भौतिक पदार्थों को परिवर्तनशील मानते हैं। मकान बनता है, निर्मित होता है और ध्वंस हो जाता है, मिट जाता है। शरीर बनता है और मिट जाता है। संसार में जो कुछ भी बनता है, वह मिट जाता है। जो कृत है वह मिटता ही है। कृत भौतिक होता है, इसलिए मिटता है। धर्म शाश्वत तत्त्व है। हर धार्मिक उस शाश्वत तत्त्व की उपासना करने के लिए अपने जीवन का अर्घ्य चढ़ता है। वह साधना करता है। यदि धर्म भी परिवर्तनशील है तो हम फिर शाश्वत की बात क्यों करें? यह निश्चित है, इसमें कोई सन्देह नहीं कि धर्म शाश्वत है। जो शाश्वत है उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। धर्म शाश्वत है उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। किसी भी देश और किसी भी काल में धर्म में परिवर्तन नहीं हो सकता। कोई तीर्थंकर आए, कोई भी आचार्य आए, धर्म में कोई भी परिवर्तन नहीं ला सकता। धर्म शाश्वत है, अपरिवर्तनशील है। वह बदलता नहीं, उसे कभी नहीं बदला जा सकता। संसार की कोई भी शक्ति उसे बदल नहीं सकती। प्रश्न है-धर्म क्या है? धर्म है अध्यात्म, आत्मा की पवित्रता, आत्मा की निर्मलता, आत्मा का सहज गुण। यह कभी नहीं बदलता। अहिंसा शाश्वत धर्म है। आज तक किसी ने इसे नहीं बदला। राग-द्वेष न करना अहिंसा है। यह नियम बदला नहीं जा सकता। जो स्वाभाविक होता है, उसे दुनिया में कोई बदल नहीं सकता। बदले वे जाते हैं जो कृत हैं, किये हुए हैं। तर्कशास्त्र कहता है- 'यत्-यत् कृतकं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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