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________________ १६६ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ वर्षों में भी प्रयोग न किया गया हो। उसका आज भी प्रयोग किया जा सकता है। एक उदाहरण आपके समक्ष प्रस्तुत करूं। संभव है आप उसे सुनकर अचंभा करेंगे। वैसी स्थिति आप आंखों से देख लें तो आपके मन में अधृति उत्पन्न हो सकती है, मन में अनेक प्रकार के विचार आ सकते हैं। किसी साध्वी के पैर में कांटा लग गया। दूसरी साध्वी उसे निकाल नहीं पाती। तब साधु उस कांटे को निकाले। इसमें कोई दोष नहीं है। किन्तु आज यदि किसी साधु को साध्वी का कांटा निकालते कोई गृहस्थ देख ले तो इतना ऊहापोह हो जाए कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इन वर्षों में यह काम नहीं पड़ा, परन्तु यह निर्दोष है, क्योंकि आगम-सम्मत है। आगम में यह आज्ञा है कि साध्वी के कोई कांटा चुभ जाए, साध्वी निकाल न सके तो साधु उस कांटे को निकाले। शास्त्र का विधान है कि साध्वियां अस्वस्थ हों, भयभीत हों, उन्मत्त हों, कठिनाई में हों तो साधु, दिन हो या रात, उनके स्थान पर जाए, उनकी परिचर्या करे, उन्हें संभाले। यही बात साधुओं के विषय में है। साधुओं में वैसी स्थिति हो तो साध्वियां उनकी सार-संभाल करें। एक बार बीदासर में वैसा हुआ था। श्रीमज्जयाचार्य वहां थे। उनको छोड़कर सभी साधु मूर्छित होते चले गए। एक विचित्र घटना घटित हुई। उस समय सूर्योदय से कुछ पूर्व साध्वियां वहां आयीं और साधुओं की परिचर्या की। मूर्छित साधुओं को अंदर ले गईं। प्रश्न हो सकता है कि 'जब सौ वर्षों में ऐसा नहीं हुआ तो फिर जयाचार्य के समय में ही ऐसा क्यों हुआ? यह प्रश्न उचित नहीं कहा जा सकता। सौ वर्षों में जो घटना घटित नहीं हुई, वह आज हो सकती है और जो आज होती है, वह आगे पांच सौ वर्षों में भी न हो। आज भी वैसी घटनाएं घट सकती हैं। मैं तो यह मानता हूं कि अच्छा हुआ मूल सूत्रों में अपवादों का उल्लेख हो गया। यदि ये अपवाद-सूत्र ग्रन्थों में ही उल्लिखित होते, मूल सूत्र में उनका उल्लेख नहीं होता तो शायद हम कह देते कि शिथिलाचारियों ने ऐसे अपवाद चला दिए। किन्तु वे मूल आगमों में हैं, अतः कोई कह नहीं सकता कि ये अपवाद शिथिलाचारियों के चलाए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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