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नई भूमिका : नए संकल्प ३ के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं। पंडित दलसुखभाई मालवणिया कहते हैं- 'पन्द्रह सौ वर्ष के इतिहास में, जैन परंपरा के इतिहास में गुरु-शिष्य का ऐसा संबंध देखने में नहीं आया।' भक्त भगवान् बन गया मैं अपना सौभाग्य मानता हूं कि मुझे ऐसा गुरु मिला, जिसने मेरे सौभाग्य का निर्माण किया। आज गुरुदेव ने मुझे अपने आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया। मैं मानतुंग सूरि के उन शब्दों को याद करूं, जो उन्होंने भक्तामर स्तोत्र में लिखे
नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ!
भूतैर्गुणे विभवन्तमभिष्टुवन्तः। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किंग, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति॥ मुझे लगता है संभवतः अणुव्रत अनुशास्ता गणाधिपति तुलसी को लक्ष्य कर ही उन्होंने ये पंक्तियां लिखी होंगी। उन्होंने लिखा-'इसमें हमें कोई आश्चर्य नहीं कि आपकी स्तुति और आपकी भक्ति करने वाला आपके समान बन जाता है।' आचार्य मानतुंग कहते हैं-'मैं उस भगवान् को कोई मूल्य नहीं देता, जो भक्त को सदा भक्त बनाए रखता है और स्वयं भगवान् बना रहता है। मैं उस भगवान् को मूल्य देता हूं, जो अपने भक्त को भी अपने सम्रान भगवान् बना दे।' इस श्लोक को लाखों लोगों ने पढ़ा है, प्रतिदिन जैन लोग इसका सस्वर पाठ करते हैं, किंतु किसी ने भी इसका क्रियान्वयन नहीं किया। इसका क्रियान्वयन किसी ने किया है तो एकमात्र मेरे भाग्यविधाता ने किया है। अपनी बात अब मैं अपनी बात कहूं। आपने तो बहुत कुछ किया। मुझे जिस संघ का दायित्व सौंपा है, वह बहुत विशाल धर्मसंघ है। संख्या की दृष्टि से,
और उससे भी अधिक कार्य की दृष्टि से। जब गुरुदेव आचार्य बने थे. उस समय हमारे धर्मसंघ में मात्र एक सभा थी-जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता। इसके अतिरिक्त न कोई और संस्था, न कोई और
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