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२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ जाती हो?' उस बुढ़िया ने कहा-'चिन्ता करने वाला जब ऊपर बैठा है तो मैं क्यों चिन्ता करूं?
प्रबल है गुरु मैंने भी कभी चिन्ता नहीं की। फलस्वरूप मेरा सारा भार, सारा दायित्व इस उत्तरीय को सौंपने वाले ने अपने उत्तरीय में ले लिया, अपने पर
ओढ़ लिया। उस समय मेरी स्थिति को जानने वाले आश्चर्य करते हैं कि मैं क्या था, क्या हो गया। कहां था और कहां पहुंचा दिया गया। मैंने कभी नहीं सोचा कि मैं 'निकाय सचिव' बनूंगा किन्तु बना। मैंने कभी नहीं सोचा कि मैं युवाचार्य बनूंगा किन्तु बन गया और मैंने कभी भी यह नहीं सोचा कि तेरापंथ धर्मसंघ जैसे विशाल धर्मसंघ का आचार्य बनूंगा। न चिंतन किया, न सोचा और न चाहा, न मांगा। बहुत से लोग मेरी जन्मकुंडली को देखते हैं। आज भी चैनरूप भंसाली के साथ बम्बई से एक ज्योतिषी आए। समय नहीं था, किन्तु उन्होंने आग्रह कर दस मिनट का समय लिया। कुंडली देखी और कहा-'आपने मांगा नहीं, चाहा नहीं, किन्तु आचार्य पद आपके गुरु ने आपको दे दिया। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। उसने कहा-'आपका गुरु बहत प्रबल है।' मैंने कहा- 'गुरु ही तो प्रबल होता है और प्रबल होता ही क्या है? और जिसका गुरु प्रबल होता है, उसे फिर इस दुनिया में कोई चिन्ता करने की जरूरत नहीं रह जाती।
इस अवसर पर आज मैं क्या कहूं? क्या मैं कृतज्ञता प्रकट करूं? बहुत छोटा पड़ता है यह कृतज्ञता शब्द। जिस गुरु ने मेरे जीवन का निर्माण किया, जिस गुरु ने एक अबोध बालक को प्रबुद्धता के उच्चासन पर प्रतिष्ठित किया, उसके लिए मैं कृतज्ञता जैसे छोटे शब्द का प्रयोग करूं, यह मैं नहीं चाहता। जो जीवनदाता होता है, भाग्यविधाता होता है, उसे समझ लेना ही अच्छा है। राम ने हनुमान से कहा- 'मैं तुम्हें धन्यवाद देना नहीं चाहता, कृतज्ञता प्रकट करना नहीं चाहता, यह जीर्ण हो जाए, बस, मुझमें ही पच जाये कि हनुमान ने मेरी कितनी सेवा की है।' गुरुदेव! आपने मुझ पर जो अनंत उपकार किया है, कितना वात्सल्य दिया है और कितना क्या-क्या किया है, उसके प्रति आभार व्यक्त करने
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