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२७. प्रज्ञा की प्रतिष्ठा का प्रयत्न
आज मैं वक्ता नहीं किन्तु श्रोता बन बैठा हूं, सुन रहा हूं। मेरे कानों में शब्द टकरा रहे थे। मैं नहीं कह सकता कि ये शब्द मेरी आत्मा तक टकराएं या नहीं टकराएं और शब्द बेचारे वहां तक पहुंच भी कैसे सकते हैं, नहीं पहुंच पाएंगे। कुछ ऐसी स्थिति बन गई कि मैं न तो कभी स्वयं के लिए स्थितप्रज्ञ होने के लिए दावा कर सकता हूं और न महाप्रज्ञ होने का दावा कर सकता हूं और न मैंने किया है। किन्तु घटना घटित होती है और वह मुझ तक पहुंच जाती है। बहुत सारी घटनाएं पहुंच ही नहीं पातीं। बड़ा अजीब हुआ कि मुझे युवाचार्य बना दिया गया। महीनों तक
और शायद आज तक भी कभी-कभी विस्मृति होती है और मुझे नहीं याद रहता कि मैं क्या हूं, कौन हूं। फिर सोचना पड़ता है, कि आखिर गुरुदेव ने जो पद दिया है ठीक उसकी गरिमा के अनुरूप मुझे औपचारिक व्यवहार भी निभाना होगा।
प्रारंभ से मैं दर्शन का विद्यार्थी रहा और मैंने दर्शन को बौद्धिक व्यायाम के रूप में स्वीकार नहीं किया किन्तु अनुभव के स्तर पर चेतना के जागरण को दर्शन माना और मानता हूं कि जब तक दर्शन की चेतना नहीं जागती तब तक कोरी चेतना सत्य तक नहीं ले जाती। बीच में अवरोध पैदा करती है। पहले-पहले लोग मुझे पंडित भी कहा करते थे। उनसे कहता कि यह मत कहो, क्योंकि पंडित से बढ़कर इस दुनिया में
और कोई खतरनाक आदमी नहीं है। सबसे बड़ा खतरनाक आदमी होता है-पंडित। दलाल खतरनाक होता है। चाहे व्यापार के, चाहे राजनीति के और चाहे धर्म के क्षेत्र में; ये जितने बिचौलिये हैं, दलाल हैं, वे ज्यादा खतरनाक होते हैं। पंडित वह होता है जो बिचौलिया होता है। मैं अपने आपको कभी पंडित नहीं मानता और न मानने को तैयार हूं।
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