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________________ १३२ अतीत का वसंत : वर्तमान का सौरभ साम्राज्य । वृक्ष का दर्शन सत्य की भांति दुर्लभ है। बहुत खोजने पर भी दिखाई नहीं देता। पर वह असफल नहीं होता, जो निरंतर खोज में संलग्न होता है। आखिर एक वृक्ष दृष्टिगोचर हुआ। वह थी खेजड़ी। राजस्थान का कल्पतरु। वह साग के लिए सांगरी देता है, बच्चों को खाने के लिए मीठे-मीठे ‘खोखा' देता है और उसकी छोटी-छोटी पत्तियां धूप में तपे हुए राही को छांह देती हैं। खेजड़ी के नीचे बैठने वाला छांह का मूल्य जानता है। कल्पतरु के नीचे बैठने वाला छांह का मूल्य नहीं जान पाता। जहां धूप नहीं, वहां छांह का मूल्य कैसे आंका जा सकता है? जयाचार्य ने खेजड़ी के नीचे विश्राम किया। उन्होंने छांह की सुखद अनुभूति का एक दोहे में चित्रण किया छोटी सी इक खेजड़ी, गहरी ठंडी छांह। जीत आदि मुनि संचा, विश्रामो तिहां पाय॥ जयाचार्य का जीवन रसहीन नहीं था। उनके जीवन में विनोद के दर्शन होते हैं और उसके पीछे दिखाई दे रहे हैं ये सब-प्रसन्नता, सामंजस्य और प्रेरणा। ऋषिराय जयाचार्य के गुरु थे। उनका शरीर स्वस्थ था। उन्हें तैल-मर्दन से बड़ी अरुचि थी। कोई साधु कारणवश तैल-मर्दन करता, वह उन्हें अच्छा नहीं लगता। संवत् १६०३ में वे चातुर्मास-प्रवास जयपुर में कर रहे थे। एक दिन घोड़े ने टक्कर लगाई। हाथ की हड्डी उतर गई। चातुर्मास संपन्न होने पर भी विहार नहीं हो सका। चैत्रमास तक वहीं रुकना पड़ा। पुराने जमाने में अस्थि-पीड़ा में तैल-मर्दन एक मुख्य उपचार था। उसका प्रयोग चल रहा था। चातुर्मास संपन्न होने पर साधु-साध्वियों ने आचार्यप्रवर के दर्शन किए। जयाचार्य उस समय युवाचार्य अवस्था में थे। उन्होंने भी आचार्यवर के दर्शन किए। ऋषिराय तैल-मर्दन करवा रहे थे। जयाचार्य ने वह देखा और तत्काल विनोद की भाषा में बोले कोई तेल लगाई आवतो, करता तिण स्यूं तर्क। इक दिन इसडो आवियो, गुरु रहै तेल में गर्क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003064
Book TitleAtit ka Basant Vartaman ka Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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