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अतीत का अनावरण ८७ दिशाएं उद्घाटित हुईं। मैं सायंकाल प्रतिक्रमण के पश्चात् गुरुदेव की वन्दना करने गया। पास में ही मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी बैठे थे। वन्दना के अनन्तर उन्होंने पूछा-आजकल क्या कर रहा है? मैंने कहा-कर्म-ग्रन्थ पढ़ रहा हूं। तत्त्वार्थसूत्र की टीका पढ़ रहा हूं। और भी कुछ नाम गिनाए। वे तत्काल गुरुदेव की ओर मुड़े और बोले-महाराज ! यह इतने ग्रन्थ पढ़ रहा है। मूल धारणा में पक्का तो है न? कोई खतरा तो नहीं है? गुरुदेव ने कहा-कोई खतरा नहीं है। सब ठीक है। विश्वास विश्वास से बढ़ता है। गुरु जब इतना विश्वास करे तो शिष्य भी जी भर कर उस विश्वास की सुरक्षा का प्रयत्न करता है। मैंने इस सचाई को जीवन में अनेक बार साकार होते देखा है। जीवन के पांच दशक मेरे मुनि-जीवन का पांचवां दशक चल रहा है और मेरे विद्यार्थी-जीवन का भी पांचवां दशक चल रहा है। इन पांच दशकों में आचार्यश्री तुलसी ने मुझे जितनी प्रेरणाएं दीं, उतनी प्रेरणाएं एक गुरु ने अपने शिष्य को दी या नहीं दीं, यह अनुसंधान का विषय है। शताब्दियों में ही कोई विरला गुरु होता है, जो अपने शिष्य को इतनी प्रेरणा देता है। मैंने केवल तेरह वर्ष के मुनि-जीवन का एक विहंगावलोकन किया है। प्रेरणा के मुख्य स्रोतों का अभी स्पर्श भी नहीं हुआ है। संस्कृत और प्राकृत जैसी प्राच्य भाषाओं का तलस्पर्शी अध्ययन, आशुकवित्व, दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, साम्यवाद आदि राजनीतिक दर्शनों का अध्ययन, पश्चिमी दर्शनों का अध्ययन, आचार्य भिक्षु और श्रीमज्जयाचार्य के साहित्य का अध्ययन, जैन आगमों का शोधपूर्ण संपादन, प्रवचन की जनभोग्य शैली, जैन परंपरा में ध्यान की विच्छिन्न शृंखला का अनुसंधान और उसका प्रयोगात्मक रूप, प्रेक्षाध्यान के शिविरों का संचालन आदि-आदि अनेक बिन्द हैं जो समय-समय पर मिली हुई प्रेरणाओं से दीर्घ रेखाओं में बदले हैं। उन सबकी चर्चा कभी अपनी आत्मकथा में करना चाहूंगा। एक निबन्ध में उसकी चर्चा सम्भव नहीं है। सृजन की नियति गुरुदेव ने एक कुशल शिल्पी और एक कुशल कर्मी के रूप में एक
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