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कथाश्लोकाः ७५ महात्मैकेन स पृष्टः, जागसि ते भयं कुतः ?
तेनोक्तमान्तरः शत्रुः, भयं जनयति सदा ॥३॥ आधी रात बीत चुकी थी। आश्रम का समूचा वातावरण नीरव और शान्त था। अपनी कुटिया में एक महात्मा जाग रहे थे। एक व्यक्ति महात्मा के पास गया। चरण छूकर उसने पूछा-'भगवन् ! आप जागते क्यों हैं ? आपको किस चीज़ का भय है ? न आपके पास धन है और न कोई वस्तु। फिर भय कैसा ?' महात्मा ने कहा-'वत्स ! बाहरी शत्रुओं का मुझे कोई भय नहीं है। मेरे आन्तरिक शत्रु-क्रोध, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि-आदि मेरे में सदा भय उत्पन्न करते रहते हैं। इसलिए मुझे जागना पड़ता है।' प्रश्नकर्ता का मन समाहित हो गया।
एक एव भवेदात्मा, सर्वेष्वपि हि प्राणिषु । - खादन्ती गौर्न वा रुद्धा, पुत्रः पित्रा निवारितः॥४॥ पिता अपने पुत्र को साथ लेकर प्रवचन सुनने गया। प्रवचन में अद्वैत का प्रकरण चल रहा था। प्रवचनकार ने कहा-'सभी प्राणियों में एक ही आत्मा है। वे सब ब्रह्म-स्वरूप हैं।' प्रवचन सम्पन्न हुआ। पिता घर चला गया और पुत्र दुकान पर आ बैठा। किराने की दुकान थी। बाहर धान बिखरा पड़ा था। एक गाय आयी। वह धान खाने लगी। लड़का देखता रहा । इतने में ही पिता भी घर से आ गया। उसने सारी स्थिति देखी। गाय को धान खाते देख वह उबल पड़ा। उसने पुत्र को उपालंभ देते हुए कहा-'अरे ! क्या तू गाय को नहीं हटा सकता ? इस प्रकार से तो सारा धन्धा ही चौपट हो जाएगा। लड़के ने कहा-'पिताजी ! 'गाय की आत्मा और हमारी आत्मा में अंतर ही क्या है ? दोनों एक हैं। सब ब्रह्मरूप हैं।' पिता ने सुना और वह अवाक् रह गया। उसने कहा-'पुत्र ! प्रवचन की बात को व्यवहार में लाना अत्यन्त कठिन है।'
पितः ! घटा विपच्यन्ते, वृष्टिर्न स्यादितीष्यते ।
पितः ! उप्तानि बीजानि, वृष्टिर्भवेदितीष्यते ।।५।। एक कुंभकार था। उसके दो पुत्रियां थीं। दोनों का विवाह हो चुका था। एक बार वह उनसे मिलने गया। पहली पुत्री के घर पहुंचा। पुत्री ने पिता को प्रणाम किया। पिता ने कुशल-क्षेम पूछा । पुत्री ने कहा-'और तो सब ठीक है । घड़ों का कजावा तैयार है। यदि कुछ दिन वर्षा न आए तो अच्छा रहे।'
पिता दूसरी पुत्री के घर पहुंचा। पुत्री को कुशल-क्षेम पूछने पर उसने कहा-'पिताजी ! अभी-अभी हमने खेतों में बीज बोए हैं। अभी वर्षा हो तो
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