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१८ : कथाश्लोकाः
पूर्वमान्यतया प्रस्तो, न सत्यं लभते जनः
मुखे लवणमापन्ना, पिपीलिकेव शर्कराम् ॥१॥ एक चींटी अपने मुंह में लवण का कण लेकर शक्कर के ढेर पर रहनेवाली चींटी के पास गई। उसने उसका स्वागत किया । वह बोली-'मेरा मुंह नितान्त खारा रहता है। उसने कहा-'लो, यह चीनी खा लो।" उसने चीनी का कण मुंह में लिया, फिर भी उसका मुंह खारा ही रहा, क्योंकि उसके मुंह में पहले से ही नमक का कण मौजूद था। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपनी पूर्व-मान्यता से ग्रस्त है, वह कभी सत्य को नहीं पा सकता। जब वह अपनी पूर्व-मान्यता को छोड़ देता है, तब ही वह सत्य तक पहुंच सकता है।
न्यूनते द्वे गृहस्य स्तः, एकस्मिन् दिवसे ध्रुवम् । .
एतद् विनंक्ष्यति स्वामिन् !, कर्ता चापि विनंक्ष्यति ॥२॥ एक धनी व्यक्ति ने बहुमंजिला मकान बनवाया। सारे नगर में प्रशंसा होने लगी। वह प्रत्येक व्यक्ति से यह पूछता कि मेरे इस मकान में क्या कमी है। सभी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर चले जाते । एक दिन एक संन्यासी वहां आया। सेठ ने उसे अपना नव-निर्मित मकान दिखाकर पूछा-'महात्मन् ! इस मकान में कोई कमी तो नहीं है ?' संन्यासी ने कहा—'सेठ ! मुझे इसमें दो कमियां दीख रही हैं।' सेठ का मन उदास हो गया। उसने अन्यमनस्कता से पूछा-'वे दो कमियां कौन-सी हैं ? मैं उन्हें भी पूरा करूंगा। मेरे पास न धन की कमी है, न कारीगरों की कमी है। आप बताएं।' संन्यासी ने कहा- 'पहली कमी तो यह है कि यह नवनिर्मित भवन एक दिन अवश्य ही नष्ट हो जाएगा और दूसरी कमी यह है कि इसको बनाने वाला भी अमर नहीं रहेगा, एक दिन मर जाएगा। सेठ ने यह सुना और वह आकाश की ओर देखता रहा गया।
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