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आत्मतुला ७३
कण्डूयनं कुतः सौख्यं,
माधुर्यं निम्बके कुतः ॥४॥ मुझे आत्मभ्रान्ति न हो । सुख हो, सुख का भ्रम न हो । खाज में सुख कहाँ ? नीम में मधुरता कहां?
पात्रशिष्यः पाठनीयोऽपात्रे विद्या भयंकरी। पात्रापात्रविवेकोऽयं,
साम्प्रतं नैव विद्यते ॥५॥ जो शिक्षा के योग्य है, वह अध्ययन के लिए पात्र है। उसकी शिक्षा फलवती होती है । अपात्र को दी गई शिक्षा भयंकर होती है। किन्तु आज के विश्व में पात्र और अपात्र का विवेक मान्य नहीं है।
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