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॥१॥
१७ : आत्मतुला कषाया दैहिका दोषाः, जायन्ते बहवो नृणाम् । रक्तचापश्च. हृद्रोगः,
उदरव्रणकादय: प्राणियों के रक्तचाप, हृदयरोग, उदरव्रण आदि अनेक शारीरिक रोग कषायों के कारण उत्पन्न होते हैं।
तोलयत स्वतुलया, मिमीध्वं निजमानतः। मा भवथ क्रीडनक,
परहस्तप्रताडितम् ॥२॥ अपने आपको अपनी तुला से तोलो और अपने माप से मापो । मनुष्यो ! तुम दूसरों के हाथ के खिलौने मत बनो।
शठे शाठ्यं समाचर्य, स्वयं दुःखं समजितम् । न दुःखी जायते शत्र:,
दुःखं प्राप्नोति स स्वयम् ।।३॥ शठता के प्रति शठता का आचरण कर व्यक्ति स्वयं दुःख का अर्जन करता है। उसका प्रतिपक्षी दुःखी नहीं होता, किन्तु वह स्वयं दुःख पाता है।
आत्मभ्रान्तिन मे भूयात्, सुखं स्यान्नसुखभ्रमः ।
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