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पुण्यपापम् ७१
अनेन नियमेनैव,
शासितं विद्यते जगत् ।।१३॥ विद्यार्थी बोले-अध्यापक-प्रवर ! इस दुनिया में जो लोग भाग्यशाली हैं, वे सुखभोग करें और जो पुण्यहीन हैं, वे सदा काम करें। यह विधि का विधान है, इसे कोई टाल नहीं सकता। इसी विधि-विधान से सारा जगत् शासित हो रहा है।
अधुना श्रमिकैः राज्यं, क्रियते जगतीतले । पुण्यापुण्यस्य चर्चेषा,
पुराणाभूद् गतादरा ॥१४॥ अध्यापक ने कहा-आज दुनिया के अंचलों में श्रमिक लोग राज्य कर रहे हैं। अब इस प्रकार के पुण्य और पाप की चर्चा बहुत पुरानी पड़ गई है। उसके प्रति अब वह आदर-भावना नहीं रही है, जो पहले थी।
नास्ति किं वस्तुतः पुण्यं, पापञ्चापि किमस्ति नो। यदि स्तस्ते तदा किं न,
फलं भावि तयोरिह ? ॥१५॥ विद्यार्थी बोले- क्या वास्तव में पुण्य और पाप कुछ भी नहीं हैं ? और यदि हैं तो उनका फल कैसे नहीं होगा ?
नाहं वच्मि न वा पुण्यं, न पापं विद्यते भुवि । पुण्यपापे मतिर्यास्ति,
समीचीना न चास्ति सा ॥१६॥ अध्यापक ने कहा--मैं यह नहीं कहता कि पुण्य और पाप नहीं हैं। मैं यह कहना चाहता हूं कि उनके बारे में जो धारणा है, वह सही नहीं है।
(वि० २०२१ दिल्ली)
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