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पुण्यपापम् ६६ स्वावलम्बी जनो नित्यं,
जीवने सफलो भवेत् ॥४॥ अध्यापक ने कहा-जीवन में सफल होने का पहला उपाय स्वावलम्बन है। स्वावलम्बी मनुष्य सदा सफल होता है।
जिज्ञासा शिक्षक श्रेष्ठ ! स्वावलम्बनमस्ति किम् ? स्वावलम्बी कथं भूयो,
जीवने सफलो भवेत् ॥५॥ विद्यार्थी ने पछा-शिक्षक-प्रवर ! मेरी जिज्ञासा है कि स्वावलम्बन किसे कहा जाता है और स्वावलम्बी कैसे सफल टोता है ?
स्वहस्त स्वस्य पाद च, विश्वासो विद्यते दृढः । स्वावलम्बनमेतत् स्यात,
आत्मनिर्भरताप्यसौ ॥६॥ अध्यापक ने कहा-अपने हाथों और अपने पैरों में जो दृढ विश्वास है-अपने पुरुषार्थ पर जो भरोसा है, उसका नाम स्वावलम्बन है । इसे आत्मनिर्भरता भी कहा जाता है।
परावलम्बनग्रस्तो, निजं विस्मरति ध्रुवम् । विफलो जायते तेन
जीवनेस्मिन् पदे पदे ॥७॥ जो मनुष्य परावलम्बन की बीमारी से ग्रस्त होता है, वह अपने आपको भूल जाता है, इसलिए वह जीवन में पग-पग पर विफल होता है।
स्वावलम्बनसंलीन:, सततं स्मरति स्वकम् । सफलो जायते तेन, जीवनेस्मिन् पदे पदे ॥८॥
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