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रणथंभोरयात्रा ६७
उच्चैरुच्चः पर्वतैः पात्यमानं, मार्गे मार्ग प्रस्तरैरुध्यमानम् । स्थाने स्थाने सेतुभिर्बध्यमानं, . पादे पादे पांशुना श्लिष्यमाणम् ॥२०॥ पीनर्मीनैः संततं क्षुभ्यमाणं, पान्थैराशूच्छिष्यमाणं तथापि । स्रोतस्तोयं काममस्ति प्रसन्नं,
न प्राणान्ते यद् विलक्षा महान्त: ।।२१।। स्रोत का पानी ऊंचे-ऊंचे पर्वतों से नीचे गिराया जाता है, मार्ग-मार्ग पर प्रस्तरों से रोका जाता है, स्थान-स्थान पर बांधों द्वारा एकत्रित किया जाता है, पग-पग पर रेत से आश्लिष्ट होता है, पुष्ट मत्स्यों द्वारा सदा क्षुब्ध किया जाता है और पथिकों द्वारा उच्छिष्ट किया जाता है, फिर भी वह स्वच्छ और निर्मल रहता है। यह सच है कि महान् पुरुष प्राणान्त में भी उदास नहीं होते। २२. उच्चरुच्चैरुपलशकलान्याह्वयन्तेऽध्वनीनान्,
दृश्या दृश्या स्फुरितनयनः खण्डिता राज्यलक्ष्मी: को वाऽखण्डः स्फुरति ममतामूच्छितो मानवोऽत्र, नम्रः कम्रो भवति भुवने यो नमेद् भज्यते न ॥२२॥ वहां के उपलखंड जोर-जोर से पथिकों को आह्वान कर रहे हैं कि तुम खण्डित राज्यलक्ष्मी को आंख फाड़-फाड़कर देखो। इस संसार में ममता से मूच्छित कौन मानव अखण्ड रह सका है ? जो नम्र होता है वही कमनीय होता है । जो नत होता है वह टूटता नहीं।
(वि० २००६ पौष)
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