________________
६४ अतुला तुला
ते के यदुच्चै जतां जनानां,
न नाम दौत्यं रचयन्ति भक्त्या ॥१०॥ आरोहण के समय जब पैर आगे बढ़े तब श्वास इतना तेज हो गया कि वह आगे दौड़ने लगा। संसार में ऐसे कौन हैं जो ऊपर चढ़ने वालों की भक्ति से दौत्य न करते हों ?
कथं कुतः केन विचित्रमेतत्, पदं सुरक्षोचितमन्वशोधि । अवक्तुकामा अपि तत्र लोका,
वाचालतां यान्ति तदीक्षणेन ।।११।। मूक रहने वाले लोग भी वहां उस दुर्ग को देखकर, सुरक्षा का यह उचित स्थान कैसे, कहां और किसने ढूंढ निकाला-इस प्रकार वाचाल हो जाते हैं।
दुर्ग दिदक्षा त्वरयत्यजस्रं, रुणद्धि पादान् सुरभिद्रुमालिः । एतद् विरोधोपशमेऽन्व गच्छन्,
निजानशक्तान् कवयोपि कामम् ।।१२।। दुर्ग को देखने की इच्छा गति में त्वरा ला रही थी। किन्तु सुरभित वृक्षों की श्रेणी पैरों को रोक रही थी। इस परस्पर विरोध का उपशमन करने के लिए कवियों ने भी अपने आपको असमर्थ पाया।
धान्याऽभावे वसति न जनस्तत्कुतः क्षुत्समाधिरालोच्यैवं मनसि सुतरां यत्र लम्बोदरोपि। संकोच्य स्वं वपुषि धरते केवलं वारणास्यं,
राहू राहो: शिर इति नयो द्वैतमापच्च तेन ॥१३॥ धान्य का अभाव होने के कारण वहां कोई मनुष्य नहीं रहता। ऐसी स्थिति में भूख समाहित कैसे हो-मन में ऐसा सोचकर गणेशजी भी अपने आपका संकोच कर, शरीर पर केवल हाथी का मुंह (सूंड) मात्र धारण करने लगे।
तर्कशास्त्रीय नय के अनुसार राहु का सिर नहीं कहा जाता। राहु का
१. वहां एक मन्दिर में गणेशजी की मूर्ति है। उसके के वल सूंड है, उदर नहीं है ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org